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761226 - Lecture SB 05.05.02 Hindi - Bombay

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



761226SB-BOMBAY - December 26, 1976 - 47.02 Minutes



Prabhupāda: So, day before yesterday I spoke in Hindi, yesterday in English. Today I shall speak in Hindi again? What do you think?

Giriraja: (announces) Hindi or English?

Guests: (all together) Hindi, English, Hindi, etc.

Giriraja: The majority rules, Hindi.

Prabhupāda: Hindi? Hm. (Hindi) So? Hindi or Enlish?

mahat-sevāṁ dvāram āhur vimuktes
tamo-dvāraṁ yoṣitāṁ saṅgi-saṅgam
mahāntas te sama-cittāḥ praśāntā
vimanyavaḥ suhṛdaḥ sādhavo ye
(SB 5.5.2)


HINDI TRANSLATION

प्रभुपाद: तो, परसों मैंने हिंदी में बात की, कल अंग्रेजी में। आज मैं फिर हिंदी में बोलूंगा? आप क्या सोचते हैं?

गिरिराज: (घोषणा करते हुए) हिंदी या अंग्रेजी?

मेहमान: (सभी एक साथ) हिंदी, अंग्रेजी, हिंदी, आदि।

गिरिराज: बहुमत शासन करता है, हिंदी।

प्रभुपाद: हिंदी? हम्म. (हिन्दी) तो? हिंदी या अंग्रेजी?

महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस
तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम

“महानतस ते सम-चित्तः प्रशांता

विमन्यवः सुहृदः साधवो ये

(श्र. भा. ५.५.२) तो पूर्व स्लोका में हमको ये उपदेश मिला की मनुष्य जीवन जो है ये कुत्ता, सूअर के जैसे परिश्रम करने के लिए नहीं है। ये जीवन जो है तपो दिव्यम, तपस्या करने के लिए है। दाट इस वैदिक सिविलाइज़ेशन। आप लोग देख रहे हैं की बड़े-बड़े ऋषि, राजर्षि सब तपस्या करते हैं। एक राजा, भारत माहराज की पुत्र, नाम रंतिदेव, राजा होते हुए भी बहुत तपस्या करते थे। कोई अगर उनको भोजन भेज दे तो वो तभी उसको कहते थे। और नहीं तो उपवास करते थे, खली अकेले ही नहीं, फुल फैमिली, तपस्वी। फिर भी ऐसा ४८ दिन बिना खाये हुए रहते हैं। उसके बाद कुछ भोजन मिला तो उतने में एक ब्राह्मण आ गया, तो उसको आधा दिया, फिर एक शूद्र आ गया तो उसको आधा, ऐसे करते-करते कुछ नहीं रह गया। दे बिकेम वैरी वीक एंड फीबल, द व्होल फैमिली। ऐसे-ऐसे हमारा भारतीय इतिहास में है। इसलिए उस समय राजा लोग भी बहुत तपस्वी होते थे। और उनके लिए ये भागवत तत्त्व ज्ञान सिखाया जाता था। भगवद-गीता में है, भगवान खुद कह रहे हैं, इमं राजसर्षयो विदुहुः

इमं विवस्वते योगम्
प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम्
विवस्वान् मनवे प्राहा
मनुर इक्ष्वाकवे 'ब्रवित्

तो भगवद ज्ञान साधारण के लिए नहीं है। जो लीडर है, जप नेता है, जो राजा है, जो प्रजा को रक्षा करने के लिए, जो प्रजा का रक्षा करते हैं, उनके लिए सब है। वो सब नहीं है सो-कॉल्ड स्कॉलर्स एंड पॉलिटीशियन्स, दे टेक भगवद-गीता। वो करते हैं सब, बाकि भगवद ज्ञान, भगवद तत्त्व ज्ञान जो श्रेष्ट हैं उनके लिए है।

यद् यद् आचरति श्रेष्ठस
तत् तद् एवेतरो जनः
श्रेष्ट भक्ति, श्रेष्ट जनः, ऐसा व्यक्ति अगर भगवद तत्त्व ज्ञान लाभ करे, तो उनका आचरण देख करके, उनका विचार देख करके, उनका व्यवहार देख करके, और सब जो निचे है वो भी आचरण करते हैं। तो ये सब आईडिया है नहीं बाकि है मनुष्य जीवन जो है वो तपस्या के लिए है। ये सिद्धांत है। मनुष्य जीवन केवल गधा, सूअर, और कुत्ता, ऊँठ, ये सब जानवर का नाम दिया है।
स्व-विद-वराहोस्त्र-खरैः
संस्तुतः पुरुषः पशुः

इफ यु कीप द पापुलेशन ट्व-लेग्गड़ एनिमल्स, देन हाउ देर केन बी पीस? देन देर केन बी अटेन्मेंट ऑफ़ ऑब्जेक्ट ऑफ़ लाइफ। तो पहले श्लोक में ऋषबदेव बताया वो

तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्
शुद्धयेद

सत्ता को शुद्ध करने से, एहि मनुष्य जीवन का काम है "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा"। ब्रह्म ज्ञान लाभ कर के अपना जो परिचय है "अहम् ब्रह्मास्मि" ये ज्ञान को लाभ करना चाहिए। ये मनुष्य जीवन है। "तपो दिव्यम" दिव्यम का अर्थ होता है भगवान, ट्रान्सेंडैंटल, इसलिए तपस्या करनी चाहिए। नहीं तो तपस्या तो सभी करते हैं जो रूपया कमाते हैं और भोग चाहते हैं, वो भी तपस्या करते हैं, बहुत परिश्रम करते हैं, नहीं। शास्त्र में कहते हैं "तपो दिव्यम"। भगवद-ज्ञान प्राप्त करने के लिए तपस्या कीजिये। हिरण्यकशिपु भी बहुत तपस्या किया था पर किसके लिए, वो चाहता था की हम अमर हो जाएँ। ये असंभव है। जो चीज़ असंभव है उसके लिए तपस्या कर के, ज़्यादा परिश्रम कर के लाभ नहीं, वो संभव नहीं होगा। बाकि यदि हम लोग भगवान को प्राप्त करने के लिए अगर तपस्या करें वो सब होगा। शाश्त्र में ऐसे निर्देश है

तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो
न लभ्यते यद् भ्रमताम् उपरि अधः

मनुष्य जीवन में उस चीज़ को लाभ करने के लिए तपस्या करनी चाहिए जो की पूर्व जीवन में अनेक जन्म-जन्मांतर हम ब्रह्मण करते हुए भी मिला नहीं। ये जो भौतिक जीवन है कभी उच्च कोटि देवता उनका घर में जन्म होता है और कभी सूअर के घर में जन्म होता है, ये चलता है।

  उपरि अधः। तो "ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्व-स्था" तो आप सत्त्व गुण में रह कर के तपस्या करेंगे तो आप को उर्ध्व लोक में स्थान मिलेगा, और "मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः" रजो गुण में प्रभावित हो कर के तो ये भू लोक आदि में रहेंगे, और "जघन्य-गुण-वृत्ति-स्थ अधो गच्छन्ति तामसाः" और अगर वृत्ति को तमो गुण में लगा करके, और उसके लिए भी तपस्या करनी होती है, ये सब मांस, मछली, शराब, तो उसको भी प्राप्त करने के लिए, विशेषकर के आज कल के कलियुग में, वो भी एक तपस्या है, बहुत रूपया कमाने पड़ता है। तो अधो गच्छन्ति तामसाः। तो    पशु जीवन मिल जाता है। इस प्रकार चालू है। "मृत्यु संसार वर्त्मनि"। अगर भगवान को प्राप्र्त नहीं किया तो वो ही रास्ता है। ये मनुष्य जीवन में आपको, हमको जो चांस दिया जाता है की ये जो कान है जो भगवान दिया है, क्यों? ये श्रवण करने के लिए। ये जीवन का उद्देश्य क्या है? और कुत्ता का भी कान है, बाकि वो भगवद-गीता का जो उपदेश है वो श्रवण नहीं कर सकता है। इसलिए मनुष्य जीवन वो कुत्ता, भेड़ी, सूअर के जैसे न करके, ये कान जो है श्रुति-गोचर । श्रुति, ये वेदा में भी शास्त्र है, उसको श्रवण करना चाहिए। और भक्ति जीवन एहि है। श्रवणम, बिगिनिंग। बिगिनिंग इस श्रवणम। श्रवणम कीर्तनम, और जो ठीक-ठीक सुना है वो फिर कीर्तन करेगा। ऐसे ही, आध्यात्मिक ज्ञान, भगवद ज्ञान ऐसे ही है। की जो ठीक-ठीक सुना होगा वो फिर दुसरे को सुनाएगा। ये उचित है। ये नहीं है की हम सुन लिया और हम हजम कर लिया, नहीं। परो-उपकार। चैतन्य महाप्रभु कहा ये मिशन है। जो 
भारत-भूमिते हैला मनुष्य जन्म यार
जन्म सार्थक करि कर पर-उपकार

ये भारतीय मिशन। पहले आप सुनिए। सुन करके अपना जीवन को ठीक से बनाइये। फिर उसको सुनाइए, दुसरे को। ये भारत जनम सार्थक करि, और कुछ सुना ही नहीं, मन माफिक प्लान बनाया और लीडर हो गया, उसमे क्या लाभ है। कुछ नहीं होगा। "अन्धा यथान्धैर उपनीयमानास" वो तो अँधा रह ही गया। और दुसरे अंधे को लीडर बन गया। तो क्या इसमें। दोनों गड्ढा में जायेगा। सुनिए, श्रवणम कीर्तनम विष्णु, इस विषय में विष्णु। ये नहीं बताया की और कुछ सुनिए। सुनने का तो बहुत चीज़ है। बाकि बहुत चीज़ किस के लिए है,

अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्
गृहेषु गृह-मेधिनाम्

सुखदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित को प्रश्न में जवाब दिया था की महाराज ये ब्राह्मण, सुखदेव गोस्वामी अब तो हमारा मरने का टाइम है। अब बोलिये क्या हमारा कर्त्तव्य है, क्या सुनना चाहिए। तो आप थोड़ा बताइये। बहुत मुनि, ऋषि उधर उपस्थित थे। एक-एक अपना-अपना सब मत दिया। भगवान की कृपा से सुखदेव गोस्वामी उधर पहुँच गया। उनका पिताजी भी वो सभा में मौजूद थे। बल्कि महाराज परीक्षित सुखदेव गोस्वामी को पुछा की महाराज आप बोलिये की हमारा क्या कर्त्तव्य है और क्या सुनना चाहिए। क्यूंकि ये वैदिक सभ्यता है सुनना चाहिए। "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुं एवाभिगच्छेत" गुरु के पास जाना चाहिए और सुनो श्रुति गोचर सुनना चाहिए। तो जवाब में सुखदेव गोस्वामी बताया था की महाराज सुनाने के लिए तो एक ही वास्तु है। जो श्रोतव्यादि सहस्राणि कहते हैं महाराज सुनाने के लिए तो हज़ारों चीज़ हैं किसके लिए

अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्
गृहेषु गृह-मेधिनाम्
श्रोताव्याधिनी राजेंद्र
नृणां सन्ति सहस्रश

अब देखिये सुनाने के लिए सवेरे आप लोग वो अखबार, न्यूस्पेपर कितना सब्जेक्ट मैटर है सुनने के लिए क्यों किसके लिए है

अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्
गृहेषु गृह-मेधिनाम्

जो ग्रह मेधी है और आत्मा तत्त्व का ज्ञान कुछ नहीं है उसके लिए अनेक विषय श्रवण करने के लिए है।

श्रोताव्याधिनी राजेंद्र
नृणां सन्ति सहस्रश

और जो आत्मा तत्त्व ज्ञानी है उसके लिए एक ही विषय सुनने के लिए है "अथातो ब्रह्म जिज्ञ्यासा"। तो सुखदेव गोस्वामी बताया महाराज सुनने के लिए तो बहुत विषय है बाकि आप के लिए एक ही चीज़ है। भागवत विषय श्रवण कीजिये। तो ये कृष्णा कॉन्सियस्नेस्स मूवमेंट जो है एहि सिखाया। यूरोप, अमेरिका में न्यूस्पेपर का बंडल इतना मोटा। हम जानते हैं उसमे १०-२०००० पेज होगा, घर-घर में बिकता है।

:श्रोताव्याधिनी राजेंद्र
नृणां सन्ति सहस्रश

अनेक एडवर्टीजमेंट, स्पोर्ट्स थिस थेट। बाकि ये जो बालक है ये और कुछ नहीं चाहता। बस वो ख़तम कर दिया। वो केवल भगवान कृष्ण का विषय चाहता है। एक ही विषय। इनको पूछ लीजिये हमारा संस्था में कहीं भी न्यूस्पेपर नहीं। बिलकुल छोड़ दिया। "भक्तिः परेषानुभवो विरक्तिर अन्ययत्र स्यात"। ये भक्ति है। यदि भगवद भक्ति हो जाये तो ये उसका पहचान है और जो भगवद भक्ति बिना जो वस्तु है उसमे विरक्ति। ये भगवद भक्ति का एक नाम है "वैराग्य विद्या", ये दुनिया में हमको कुछ नहीं चाहिए।

ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा
न शोचति न कांक्षति

जब दुनिया से हमारा मतलबा ही नहीं है तो कुछ नुक्सान हो गया तो उसमे हमारा क्या नुक्सान, वो ही तो देखने का है और लाभ भी हो उस लाभ में हमारा क्या। ये

ब्रह्म-भूत: प्रसन्नात्मा
न शोचति न कांक्षति

ये वैराग्य। समः सर्वेषु, हमारा दुनिया से जब कोई मतलब ही नहीं है फिर हमारा कौन शत्रु है, मित्र है, इसका कोई सोचने का ही जरूरत नहीं है। सब हमारा मित्र है। अभी लेटर हमने पढ़ रहा था जीसस क्राइस्ट वो कहीं मीटिंग में तो उनको खबर मिला की उनके माताजी वो भाई बुला रहे थे तो वो मीटिंग में क्राइस्ट बोला हमारा कौन है माता कौन है पिता। हमारा ये भगवद भक्ति का जो वो हमारा विषय है, वो हमारा भाई है। सब जगह में एक ही बात है

:श्रोताव्याधिनी राजेंद्र
नृणां सन्ति सहस्रश
अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्
गृहेषु गृह-मेधिनाम्

ये जो दो शब्द व्यवहार हुआ है, एक ग्रह मेधी और एक गृहस्थ। गृहस्थ जो है वो आश्रम है। हमारा शास्त्र में वर्णाश्रम, चार वर्ण चार आश्रम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चार वर्ण और चार आश्रम ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। हमलोग साधारण तौर से समझ सकते हैं आश्रम ये सब जगह पे बनता है, उससे हमलोग समझ जाते हैं की इधर भगवद चर्चा होती है। तो गृहस्थ आश्रम का होता है, वो है तो गृहस्थ, बल-बच्चा है परन्तु मुख्या उद्देश्य है किस तरह से भगवान से हमारा संपर्क बना रहे। उसका नाम गृहस्थ। और ग्रह मेधी जो है उसको कोई उद्देश्य नहीं है। खाली खाओ -पियो और मजा करो, बस घर को सजाओ, औरत को सजाओ, बच्चे को सजाओ। उसका नाम है ग्रह मेधी। क्यों, उसको आत्म तत्त्व ज्ञान से कुछ मतलब नहीं।

अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्
गृहेषु गृह-मेधिनाम्

तो ग्रह मेधी होने से हमारा जीवन वोई, ग्रह मेधी तो कुत्ता, भेड़ी, और सूअर सभी होते हैं। सभी का औरत होता है, बच्चा होता है और सबका आपका ख्याल है, बाकि ग्रह मेधी नहीं होनी चाहिए, गृहस्थ होना चाहिए। बाल-बच्चे लेकरके घर में रहने से कोई वो नहीं जाता, छोटा नहीं हो जाता । चैतन्य महाप्रभु बताये हैं की

किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय
येई कृष्ण-तत्त्व-वेत्ता, सेई 'गुरु' हय

चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की चाहे शूद्र होय, चाहे ब्राह्मण होय, चाहे सन्यासी होय, चाहे गृहस्थ होय, इसमें कोई बाधा नहीं। यदि कोई व्यक्ति कृष्ण तत्त्व ज्ञान है, कृष्णा क्या चीज़ है, इसे खाली समझता है, वोई गुरु है। तो इसलिए कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट है की आप लोग सब कृपा करके कृष्ण तत्त्व ज्ञान लीजिये और जीवन सफल होगा। और नहीं तो बुरा न मानिये वो आप जैसा बताया वो जिसका विद-भुजां

नायं देहो देह-भाजां नृलोके
कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजां ये

अयं देहा न अर्हते, ये उचित नहीं है, ये जो विद-भुजां, ये तो सूअर भी करता है। ये भारत का है। लेकिन आज का जो सविलाइज़ैशन है वो किस तरह से ज्यादा परिश्रम करके और जो इन्द्रिय तृप्ति हो सके उसी का विषय कहता है और आत्म तत्त्व ज्ञान :अपश्यतां आत्म-तत्त्वम्। तो उसके लिए भगवान बताया है

भोगैश्वर्य-प्रसक्तानाम्
तयापहृत-चेतसाम्
व्‍यवसायात्मिका बुद्धि:
समाधौ न विधीयते

ज्यादा भोग में लिप्त हो जाने से, फिर वो जो भगवद ज्ञान, आत्म तत्त्व ज्ञान, वो मिलने का संभावना है नहीं। इसलिए हमारा भारत वैदिक सभ्यता है की भोग के लिए ज्यादा चेष्टा मत करो। अब देखिये बड़े-बड़े सब ऋषि लोग, व्यासदेव आदि, कितना भारी विद्वान्, आजकल डॉक्टर, फिलोसोफर आदि सब होते हैं, उसका एक सम्बन्ध भी नहीं होता है। कितना हंबली रहते थे। राजा लोग भी राज कर्म चलने के लिए बड़े-बड़े पैलेस चाहिए था क्यूंकि नहीं तो आदमी मानेगा नहीं। और नहीं तो और सब व्यक्ति सब कुटिया में रहते थे साधारण। मंदिर खर्च करने के लिए जितना अपने पास धन है सब दे देते थे। ये जो बड़े-बड़े सब सम्बन्धी है, ये पुब्लिक का मनी से ही बना था। ये राजा दिया था। वो भगवान के लिए खूब खर्च करेंगे, और अपने लिए कहीं भी पड़े रहेंगे। ये बहरतीय संप्रदाय है। इन्द्रिय तर्पण नहीं। इन्द्रिय तर्पण करने से फिर उसको शरीर मिलेगा।

नूनं प्रमत्त: कुरुते विकर्म
यद् इन्द्रिय-प्रीतय आप्रुणोति

"न साधु मन्ये" व साधु नहीं है। इन्द्रिय तर्पण करने के लिए इतना परिश्रम। प्रह्लाद महाराज भी बताये हैं की

नैवोद्विजे पर दुरत्यय-वैतरन्यास
त्वद्-वीर्य-गायन-महामृत-मग्न-चित्तः
शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढां

वैष्णव इसलिए सोचता है की देखो जी ये तो भगवान को भूल गया और दो-चार सुख के लिए इतना भरम कर रहा है। इतना बड़ा मकान चाहिए, ये चाहिए, वो चाहिए, थिस इस आसुरिक सविलाइज़ेशन। वैरी डिफिकल्ट टू पुश ऑन कृष्णा कोशिएसनेस्स। नोबडी इस प्रीप्रेड। बड़ा मुश्किल है। तब भी करना पड़ेगा। क्यूंकि भगवान खुद कह रहे हैं

य इदं परमं गुह्यं
मद्भक्तेषव अभिधास्यति
न च तस्मान् मनुष्येषु
कश्चिं मे प्रिय-कृतमः

तो भगवद दास है। वो चाहते हैं की भगवान किसी तरह से सुक्खी हो जाएँ। हमलोग ऐसा काम करें की भागवत दास बन जाएँ। जैसे साधारण दास है वो भी समझता है की मालिक किस तरह से खुश रहे, वो चाहते हैं। इसी तरह भागवत दास का भी वोही कामना है। तो भगवान की कुछ सेवा किया जाये अगर भगवान यदि ख़ुशी हो जाये तो हमारा मंगल हो जाये भगवद दास का, उसका और कोई कामना नहीं। इन्द्रिय तर्पण के लिए कोई कामना नहीं। चैतन्य महाप्रभु यही सीखाते हैं की

न धनं न जनं न सुन्दरीं
कवितां वा जगत-ईश कामये
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे
भवताद् भक्तिर अहैतुकी त्वयि

भगवन हम ये सब नहीं चाहते हैं। ज्यादा नहीं चाहते हैं। धन चाहिए, बहुत आदमी चाहिए, और सुन्दर स्त्री चाहिए। चैतन्य महाप्रभु सीखा रहे हैं की नहीं ये सब कुछ नहीं चाहिए।

न धनं न जनं न सुन्दरीं
कवितां वा जगत-ईश कामये

तो फिर क्या चाहिए। "मम जन्मनि जन्मनीश्वरे" इन्हे मुक्ति भी नहीं चाहिए। क्यूंकि मुक्ति होने से जन्म नहीं हो सकेगा। वो भी नहीं। केवल चाहिए कहीं भी जन्म होये कुछ परवाह नहीं, जैसे आप की इच्छा, कहीं भी जन्म होए, लेकिन आपको नहीं और आपकी भक्ति को नहीं छोड़ेंगे, ये भक्त लोग का प्रार्थना है। इसलिए भगवान ये भक्त लोग को कहा जाता है निष्काम। निष्काम का अर्थ एहि है जो भौतिक इन्द्रिय तर्पण करने के लिए जो डिज़ाइरस वो नहीं है।

अन्याभिलाषिता-शून्यम्
ज्ञान-कर्मादि-अनावृत्तम्

जो ज्ञानी होते हैं वो भी मांगते हैं कुछ भगवान से मुक्ति और जो कर्मी होते हैं वो तो भगवान को मांगते ही हैं हमको ये दीजिये, वो दीजिये, हमको स्वर्ग में स्थान दीजिये, मिलता है ये कोई बात नहीं। और योगी वो भी मांगते हैं की हमको सिद्धि दीजिये, अष्ट सिद्धि दीजिये, अनिमा, लघिमा, प्राप्ति, ये सब, हमको मैजिक दिखाया आदमी भगवान को जानने के लिए, ये सब चाहने वाला है। इसलिए चैतन्य चरितामृत में बताते हैं

कृष्ण-भक्त-निष्काम, अत एव 'शांत'
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी, सकली 'अशांत'

तो कोई कहते हैं की हमको शांति चाहिए। शांति तो तभी मिलेगा जब कृष्ण भक्त हो जायेगा। नहीं तो जब तक भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी, शांति-वन्ति कैंसिल। ये शास्त्र का निर्देश है। भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी, भुक्ति मने कर्मी, केवल भोग चाहिए, और ज्ञानी मुक्ति, ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं। और योगी सिद्धि चाहते हैं। चार प्रकार के आदमी होते हैं, कर्मी, ज्ञानी, पशु का ऊपर होते हैं और जो पशु होता है वो जनता ही नहीं क्या चाहिए, क्या माँगना है, किस तरह से, वो पशु है, और पशु जीवन से जो उचा हो गया तो उसको कर्मी, ज्ञानी, योगी, भक्त, तो एक स्तर से ऊँचा होते हैं। भक्त होना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। इसलिए

तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्
शुद्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम

तो मनुष्य जीवन में तपस्या करके उस पोज़िशन में आना चाहिए की जहाँ से ब्रह्म सुख जो टूटने वाला नहीं, ऐसा सुख लाभ करो, ब्रह्म सुख, सत्ता शुद्ध हो जाने से चाहे ब्रह्मवादी होए, चाहे आत्मानंदी होए, चाहे भक्त होए, सुको ब्रह्म सुख मिलता है। वो टूटने वाला नहीं है। बाकि ब्रह्म सुख, जो निर्विशेष ब्रह्म सुख है, वो सम्पूर्ण नहीं है। ये शास्त्र में निर्देश है

आरुह्य कृछ्रेण परम पदं ततः
पतन्ति अधो 'नाद्रत-युष्मद-अंघ्रय:'

जो ब्रह्मवादी है उसको ब्रह्म सुख मिला वो तपस्या करके परन्तु भगवद ज्ञान नहीं हुआ। तो पतन्ति अधो, क्यूंकि जीव है आनंदमय, आनंद चाहिए। तो आनंद केवल ब्रह्म सुख से नहीं होता है। अहम् ब्रह्मास्मि, चुपचाप बैठ गया, नहीं। ज्यादा दिन नहीं चलेगा। इसलिए शास्त्र में बताते हैं जबतक भगवान के पास नहीं पहुंचेंगे 'नाद्रत-युष्मद-अंघ्रय:' ,ये जो ब्रह्मवादी लोग होते हैं वो भक्त लोग को बोलते हैं माया। ये जो भक्त लोग का भगवान है ये माया है और भक्ति का जो नियम कानून है, ये सब माया है, ये सब कुछ तो 'नाद्रत, आदर नहीं करते हैं। इसलिए शास्त्र में बोलता है 'नाद्रत-युष्मद-अंघ्रय:', भागवत सेवा छोड़ करके, केवल अहम् ब्रह्मास्मि, चुपचाप बैठ गया, वो ज्यादा दिन चलेगा नहीं। 'नाद्रत-युष्मद-अंघ्रय:' पतन्ति अधो। इसलिए शास्त्र में देखा जाता है बड़े-बड़े योगी, ज्ञानी का पतन हो जाता है। बाकि भक्त लोग, अगर भकत का पतन भी हो गया, तो उसमे कोई नुक्सान नहीं है, शास्त्र में बताया है। क्यूंकि वो भक्ति जितना साधन किया है वो परमानेंट एसेट है अगर पतन भी हो जाये "योगो ब्रष्ट संजायते"।

शुचिनाम् श्रीमतां गेहे
योग-भ्रष्टोऽभिजायते

अगर भक्ति एकदम शुरू हो जाये; थोड़ा ही तो साधन किया है

स्व-अल्पम् अपि अस्य धर्मस्य
त्रायते महतो भयात्

ये सब शास्त्र में बताया है। तो ऋषबदेव बताते हैं की ये जो तपस्या किस तरह से शुरू हो तो "महत सेवा"। महत कौन है?

महात्मानः तु माम पार्थ
दैवीं प्रकृतिं आश्रितः
भजन्ति अनन्य-मानसो

महत, जोकि सब समय भागवत भजन करता है। महात्मा, तो इसमें कहते हैं महत सेवा ऐसे व्यक्ति के पास जाओ जो रियल महात्मा हो, कहने वाला नहीं। वो कौन है भजंति मां, अनन्य मनसो, केवल भगवान का चरण में सेवा के लिए जो सब समय नियुक्त है, उसको सेवा करो। महत सेवा; आजकल जैसे कहते हैं दरिद्र नारायण सेवा, ये नहीं, महत सेवा। तो महत सेवा द्वारं, यदि मुक्ति का द्वार चाहते हैं, इधर से मुक्ति मिलेगा तो महत सेवा करो। भागवत सेवा पीछे, पहले भागवत भक्त का सेवा। नरोत्तम दास ठाकुर गीत गया है "छाड़िया वैष्णव-सेवा निस्तार पायेचे केबा" विथाउट सर्विंग वैष्णव नोबडी हैस गैंड रिलीफ फ्रॉम थिस मटेरियल लाइफ, तब इस "आदौ गुरुव-आश्रयम्सद्धर्म-पृच्छा साधु-मार्ग-अनुगमनम्" एहि परमपरा सिस्टम। ये परंपरा से महत सेवा, आत्मा, महत, जो की भगवान जो महत है, की महत तत्त्व जिसका चरण में है, उनकी सेवा जो करते हैं वो मुक्त हैं। "महत पदम् पुण्य यशो मुरारे"। भगवान का नाम है महत पदम्। वो महत पद का जो सेवा करते हैं वो है महात्मा।

महात्मानः तु माम पार्थ
दैवीं प्रकृतिं आश्रितः

वो दैवी प्राकृत का आश्रित है। ये जड़ा प्रकृति का आश्रित है नहीं। क्यूंकि जो भक्त है "स गुणां समतीत्यैतां" जड़ा प्रकृति है जो त्रिगुणमयी माया, वो जड़ा प्रकृति। और जो भक्त है वो जड़ा प्रकृति का अतीत है। तो इसलिए उसको महत व्यक्ति कहा जाता है, महात्मा कहा जाता है। बाकि वो "स महात्मा सुदुर्लभः" भगवान कहते हैं। वो जो महात्मा है वो साधारण नहीं है सुदुर्लभः

बहुनाम जन्मनाम अंते
ज्ञानवान् माम् प्रपद्यते
वासुदेवः सर्वम् इति
स महात्मा सु-दुर्लभाः

वो महात्मा है। स महात्मा सु-दुर्लभाः। ऐसा महात्मा तो बहुत मिलेगा हमारे जैसा भीक मांगने वाले, नहीं सुदुर्लभः। उसका परिचय क्या है: सब समय "भजंति मां अनन्य मनसो"। इस प्रकार महात्मा जो है महत है, उनकी सेवा करनी चाहिए। "महत सेवा द्वारं आहूर विमुक्तेस"। यदि आप इस भौतिक जीवन से मुक्ति चाहते हैं, यदि आप ये समझ गया है की भौतिक जीवन बड़ा कष्टदायक है, है तो बाकि माया का प्रभाव से हमलोग समझता नहीं। हमलोग सोचते हैं बड़ा आराम है। जब तुमको मरना ही है तो मर करके फिर एक जीवन, एक शरीर धारण करना है तो सुख कहाँ है। बाकि इतना ब्रेन डल है वो समझता ही नहीं। वो समझता है चलो मरने के बाद क्या। भगवान बोलते हैं "तथा देहांतर प्राप्ति" मरने के बाद तुमको एक शरीर लेने पड़ेगा उसके लिए तैयार रहो "ऊर्ध्वं गच्छांति सत्वस्था" ये जो सब बातें बोलते हैं तो सुनता ही नहीं। क्या किया जाय, ये मुश्किल है। तो असल में चाहिए, सोचना चाहिए, बुद्धिमान होनी चाहिए की महत सेवा, जो व्यक्ति महत है, मने की भगवान की सेवा में सब समय नियुक्त है, इस प्रकार इस व्यक्ति का चरण आश्रय लो "आदौ गुरुव-आश्रय" "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुं एवभिगच्छेत्"। तो किस प्रकार गुरु के पास जाना चाहिए तो "महत सेवा" जो की सब समय भगवान की सेवा में नियुक्त है, ऐसे व्यक्ति के पास जाइये और उनकी सेवा में निरुक्त होइए। क्यों, महत के पास क्यों जाएँ और उनकी सेवा में लग जाएँ, समाज का सेवा है, देश का सेवा है, और क्या-क्या सब अनेक प्रकार सेवा है, महत सेवा क्यों। द्वारं आहूर विमुक्तः। यदि मुक्ति चाहते हो, ये जो रेपेटिशन ऑफ़ बर्थ एंड डेथ, इससे यदि रिहाई चाहते हो तो महत सेवा। और जो नहीं चाहते हो तो कुछ भी करो।

महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस
तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम

योशिताम्, योषित का अर्थ होता है स्त्री, ये भोग का वस्तु। योषित, सेंस ग्रटिफिकेशन, एनीथिंग, मुख्य सेंस ग्रटिफिकेशन है स्त्री सम्भोग। तो योषित, "योशिताम् संगी-संगम" योषित भोग नहीं, योषित में जिसका आसक्ति है, योषितां संगम, उनको भी संग करना मना कर दिया है। ये शास्त्र का नियम है। "योशिताम् संगी-संगम", जो अब तो सम्भोग नहीं करते हैं, अब कोई दूसरा करते हैं, उससे हमारा क्या मतलब है, नहीं। क्यूंकि "संगात संजायते कामः" एंटिमटेली योषित संग जो है उससे ज्यादा मिलेंगे तो पीर ये हो सकता है क्यूंकि इन्द्रिय बहुत प्रबल है। "विद्वांसं अपि कर्षति" शास्त्र में निर्देश है

बलवान् इन्द्रिय-ग्रामो
विद्वांसं अपि कर्षति

इन्द्रिय इतना बलवान है की योषित संगी इसको संग करते-करते-करते हमारा भी इन्द्रिय प्रबल हो जायेगा। विद्वांसं अपि, ये बड़े-बड़े विद्वान भी फैल्योर हो जाते हैं। इसलिए बड़ा सावधान से रहना चाहिए, और यदि हमलोग को इस तरह से हमलोग को गृहस्थ लाइफ है बड़ा सावधान से रहना चाहिए। ये शास्त्र का निर्देश है। योशिताम् संगी-संगम ये महान तो है, किस तरह से हम समझेंगे, उसका भी डेफिनिशन दिया है।

महानतस ते सम-चित्तः प्रशांता
विमन्यवः सुहृदः साधवो ये

ये महानमहात्मा। ऐसे तो साधारण भगवान डेफिनिशन दिया "महात्मानः तू मां पार्थ" तो इसका साधारण डेफिनिशन है और ये विश्लेषण करके की महात्मा कौन है उसका विषय बता रहे हैं "महानतस ते सम-चित्तः" ये चित्तः कौन है? बिना भागवत भक्त हुए चित्तः नहीं हो सकेगा। "समः सर्वेषु भूतेषु" कौन है? "मद भक्तिं लभते पराम" ये सब शास्त्र में है। सम-चित्तः का अर्थ होता है की भागवत भक्ति ऐसी चीज़ है सबको उपकार के लिए है, वो केवल इंडिया में ही रहेगा, केवल भारतीय के लिए रहेगा, हिन्दू के लिए रहेगा, ब्राह्मण के लिए रहेगा, ये नहीं , सबको लाभ। ये सम-चित्तः। सबको भागवत भक्ति लाभ है, और भगवान कहते हैं की

माम् हि पार्थ व्यापाश्रित्य
ये 'पि स्युः पापा-योनयः

तो पाप योनि होने से क्या होगा, भगवान का आश्रय कर सकते हैं सभी। ये पाप योनि है उसका मुँह नहीं देखेगा, पास नहीं जायेंगे, तो उसको कौन सिखाएगा? अब पाप योनि बोल कर सब छोड़ देंगे तो सम-चित्तः नहीं, ये तो पापी है, इसको भागवत भक्ति कैसे दिया जायेगा। नहीं, भागवत भक्ति सब के लिए है। भगवान खुद कहते हैं

माम् हि पार्थ व्यापाश्रित्य
ये 'पि स्युः पापा-योनयः

ये पाप योनि होने से वो योग्य नहीं है, नहीं, वो भी योग्य है। "ते पि यन्ति पराम गतिम्" वो भी पराम गतिम् लाभ कर सकता है, तो इसलिए उचित है जो भगवान को दास है, वो अपने को भगवान का दास कह करके अभिमान करते हैं उसके लिए उचित हैवो जैसे चैतन्य महाप्रभु बताये हैं की

आमार आज्ञा गुरु हना तारा' एइ देश
यारे देखा, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश

सब कोई गुरु बन जाइये और किस तरह से गुरु बन जाये "यारे देखा, तारे कह 'कृष्ण'-उपदेश। इट इस नॉट एट आल डिफिकल्ट, प्लीज़ रिपीट, डोंट इन्टरप्रेट। कृष्णा बोलते हैं, व्हाटएवर कृष्ण हेस सेड, यू सिम्पली रिपीट। यू हेवेंट गोट टू बीकम वैरी क्लेवर टू इन्टरप्रेट इन ए रॉंग वे टू ब्रिंग रुइनेशन फॉर यू एंड त अतर, डोंट डू इट। सिम्पली व्हाट इस स्पोकन थेर यू रिपीट लाइक ए पैरेट, थेन इट बिकम्स इसी। तो इसलिए सम चित्ता 'प्रशांता, प्रकृष्ट रूपेण शांता, किसी तरह से डिस्टर्ब नहीं, सब समय शांत। एक ही लक्ष्य है की किस तरह से भगवान की नाम, गुण, और परिकर परिशिष्ट को ये सब दुनिया में प्रचार किया जाये। हर एक प्रकार का खंजर उसमे लेने पड़ता है। तो विचलित नहीं होना चाहिए और किसी तरह से भागवत नाम कीर्तन "सततं कीर्तयन्तो मां" नेवर माइंड व्हाट इस थेइर ओप्पोसिशन

सततं किर्तयन्तो माम्
यतन्तश्च च दृढ़-व्रतःki

प्रशांत सम चित्तः और विमन्यव:। विमान्यव: मने डिस्टर्ब होने से कभी-कभी क्रोध हो जाता है। नहीं, महात्मा जो है वो क्रोधी नहीं होते हैं। क्यों, जानते हैं दुनिया ऐसी ही है, ये भगवान को नहीं चाहते हैं, गाली दिया और कुछ किया, तो क्या किया जाये। ये सब प्रमाण है, जैसे नित्यानंद प्रभु जगाई मधाई को उद्धार किया था, उसको मारा खून निकल आया, फिर भी उसको छोड़ा नहीं। खून निकल आ गया, तुम गाली दिया, मारा और जीसस क्राइस्ट को क्रूसिफ़ाइ कर दिया, पर जी किसी के ऊपर क्रोध नहीं किया, विमन्यव: ये सब करैक्टर है। हरिदास ठाकुर को बाइस बाजार में बेत से मारा, मुस्लमान, काज़ी, कभी मुस्लमान हो करके हिन्दू हो गया, ये उनका अपराध। वो हरिदास ठाकुर मुस्लमान था। और सब मुस्लमान का राज, तो उसको पकड़ के ले आये की देखो जी तुमको कितना पुण्य से मुस्लमान के घर में जन्म मिला है और तुम हिन्दू हो गया। तो बेचारा क्या करेगा। देखा तो विपद है। बस इतना ही जवाब दिया की हुज़ूर बहुत से हिन्दू भी तो मुस्लमान हो जाता है, इसमें क्या दोष हुआ। हाँ, तुम्हारा हुक्म हो गया इसको बाइस बाजार में बेथ लगाओ। ये सब सहन, प्रह्लाद महाराज तो बहुत सहनशील होने पड़ा। उसका नहीं तो काज़ी है नहीं तो और कोई है, पाना पिताजी उनको कितना शाशन किया। बाकि प्रह्लाद महाराज इतना विमन्यव: है की कितना होते हुए भी और भगवान वो हिरण्यकशिपु को जान से मार दिया। तो उस समय भगवान प्रह्लाद महाराज को बोला की बेटा लो क्या वर चाहते हो, तो प्रह्लाद महाराज अपने के लिए कोई वर नहीं लिया। बोला महाराज ये परदेव हैं और हम रजोगुण, ये फॅमिली में जन्म हुआ है, हम तो लोभी हो जायेंगे, तो हम तो ऐसा नहीं है की आपकी सेवा करके आपसे कुछ मान ले। नहीं। तो वो भी प्रह्लाद महाराज अपने पिता के लिए भगवान से प्रार्थना किये की महाराज एक प्रार्थना मैं जरूर करूंगा क्यूंकि हमारा पिताजी अनेक अपराध किया है आप इस समय उनको उद्धार करिये। देखिये विमन्यव:। थिस इस वैष्णव। विमन्यव: सुह्रदः उनको भी भला चाहते हैं। इतना तकलीफ दिया उनको। जीसस क्राइस्ट भी ऐसा बोला है "ओ गॉड थे दो नॉट नो व्हाट थे आर डूइंग, एक्सकुस दम", ऐसा है न कुछ। एनीवे वो साधु जानते हैं की ये सब पागल है, बहुत कुछ बोलेंगे। बाकि हमारा काम है इसको भागवत भक्ति सुनाना चाहिए किस तरह से उद्धार होये। इस तरह साधु, महात्मा के पास जाना चाहिए, उनसे सीखना चाहिए, ये ही तपस्या है। ज्यादा कोई मुश्किल नहीं है। यदि योग्य गुरु मिल जाये, उनका डायरेक्शन से चलने से सब बात ठीक हो जायेगा, और मनुष्य जीवन सफल हो जायेगा। ये ऋषबदेव का जो निर्देश है "सुह्रदः साधवो" "साधवो साधु भूषण" साधु का ये ही लक्षण है की तितिक्षवः कारुणिकाः एक तरफ से उनको बहुत कुछ सहन करने पड़ता है और दुसरे को दयालु करने पड़ता है, दो काम है। तितिक्षवः कारुणिकाः सुह्रदः सर्वभूतानां अजात शत्रवः शान्तः विमन्यवः साधू भुषाणां, ये साधु का भूषण है। तो ये सब प्रैक्टिस करने से ये सब संभव है। बाकि ये मनुष्य जीवन का काम है। बाकि ये कुत्ता,भेड़ी, सूअर के जैसे दिन भर परिश्रम करके और इन्द्रिय तर्पण करना, ये मनुष्य जीवन का काम नहीं है। ये और कभी आगे सुनाएंगे। थैंक यू वैरी मच।