Go to Vaniquotes | Go to Vanipedia | Go to Vanimedia


Vanisource - the complete essence of Vedic knowledge


761224 - Lecture SB 05.05.01 Hindi - Bombay

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



761224SB-BOMBAY - December 24, 1976 - 33.26 Minutes



Prabhupāda:

ṛṣabha uvāca
nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛloke
kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhujāṁ ye
tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam
(SB 5.5.1)

(Hindi)


HINDI TRANSLATION

प्रभुपाद: ऋषभ उवाच नायं देहो देहा-भाजाम नृलोके कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजाम ये तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम् शुद्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम (श्री. भा. ५.५.१) उपदेश ऋषबदेव का है। ऋषबदेव जो सनातनी है। ऋषबदेव अथॉरिटी, प्रधान, और जैन लोग भी मानते हैं ऋषबदेव को। भगवान सबके लिए है। भगवान ने तो हिन्दू है, न तो मुस्लमान, न तो जैन है। भगवान तो भगवान है। जैसा सोना होता है। सोना कोई हिन्दू के पास है, हिन्दू सोना नहीं, वो सोना है, कोई मुस्लमान के पास है तो मुस्लमान सोना नहीं। इसी प्रकार भगवान एक ही है। "एको ब्रह्मा द्वितीय ना "। ये हमलोग का ब्रम्ह है की हिन्दू धरम, मुस्लमान धर्म, क्रिश्चियन धर्म, जैन धर्म, धर्म तो एक ही होने चाहिए। भगवान, यमराज ऐसे बताते हैं "धर्मं तू साक्षाद भागवत प्रणीतं" धर्म उसी को कहा जाता है जो भगवान देता है, भगवान बोलता है (थेट चाइल्ड) जैसा कानून होता है। कानून, जैसा हमारा भारतवर्ष में एक राज्य है। भारत का जो कानून है वो गवर्नमेंट ही बना सकता है। ये नहीं की कानून हिन्दू एक बना लिया, मुस्लमान एक बना लिया, क्रिस्चियन एक बना लिया, नहीं। कानून तो उसी को माना जायेगा जो की गवर्नमेंट देता है। रास्ता में आप जाइये, कीप टू दी लेफ्ट, कीप टू दी राइट, वो मुस्लमान को भी मानने पड़ेगा, हिन्दू को भी मैंने पड़ेगा, क्रिस्चियन को भी मानने पड़ेगा, क्यूंकि गवर्नमेंट का कानून है। इसी प्रकार जो भगवान बोलता है वो धर्म है बस। थिस इस दी सिम्प्लिस्ट डेफिनिशन ऑफ़ रिलिजन। "धर्मं तू साक्षाद भागवत प्रणीतं। ये जो भगवद-गीता भगवान स्वयं आकरके हमे बता रहे हैं

मन-मना भव मद-भक्तो
मद्-याजी माम् नमस्कुरु

वो भगवान को चाहे आप कृष्ण बोलिये, चाहे अल्लाह बोलिये, और चाहे क्राइस्ट बोलिये, बाकि आपको काम क्या है। "मन-मना भव मद-भक्तो

मद्-याजी माम् नमस्कुरु" जब भगवान, नाम चाहे जो कुछ दीजिये, ये आप के लिए उचित है जो सब समय भगवान को स्मरण करना। "मन-मना भव मद-भक्तो" और भगवान का भक्त हो जाना। चैतन्य महाप्रभु ये ही बताया है; ये जो हमलोग हरे कृष्ण मंत्र का आंदोलन चला रहे हैं। चैतन्य महाप्रभु ऐसे नहीं बोलते हैं की आप केवल कृष्णा ही बोलिये; भगवान का नाम बोलिये। यदि आप भगवान को जानता है, तो उसका नाम भी ? जानेगा। क्यूंकि भगवान का आपका परिचय है ही नहीं, तब किसको नाम करेंगे आप? कोई मित्र से जब आपका परिचय ही हैं नहीं, तो उसके नाम से क्या परिचय?
नामनाम अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः
तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः
एतादृशी तव कृपा भगवान ममापि
दुर्दैवं इदृशं इहाजानि नानूरागः

चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं, "हे भगवान आपका अनेक नाम है, होगा ही, भगवान इस अनलिमिटेड। भगवान तो कोई सीमित है नहीं, असीमा। तो भगवान नाम भी बहुत है। हमारा ही शास्त्र में विष्णु सहस्रनाम है, अनेक प्रकार का नाम।

रामादि-मूर्तिषु कला-नियमेन तिष्ठन
नानावतारम् अकरोद् भुवनेषु किन्तु

ऐसे असंख्य अवतार है और नाम भी हैं। बाकि कोई भी नाम हो, जो आपको पसंद करता हो। ये बात नहीं है जो कृष्ण नाम। कृष्ण नाम मुख्या नाम है। ये का वचन है। भगवान का अनेक, मिलियंस एंड ट्रिलियन्स, हज़ारों नाम हो सकता है। बाकि मुख्या नाम है कृष्णा "कृष्णस तू भगवान स्वयं"

एते चाँश-कलाः पुंसः
कृष्णस तु भगवान स्वयं

इसलिए हमलोग जो वैदिक सिद्धांत मांनने वाला है, कृष्ण नाम प्रधान मानते हैं। और नहीं तो आप समझे की कृष्ण तो ये हिन्दू का नाम है, तो आप जो आप भगवान का नाम जानते हैं, उसका तो नाम आप लीजिये। ये जो हमलोग का प्रचार का विषय है की "हरेर नामैव केवलं"। ये भगवान का नाम है। उसमे आपको कोई भेद नहीं है, अगर आप के लिए भगवान का नाम और कुछ है। बाकि मुश्किल एहि है की ये आजकल का जो दुनिया है वो न तो भगवान का नाम को जानते हैं और न तो भगवान को। जब भगवान का ही परिचय है नहीं तो भगवान का नाम कैसे जानेंगे? ये मुश्किल है। नहीं तो कोई भी भगवान का नाम आप लीजिये, तो वो उस बात को मिलेगा। "नामनाम अकारि बहुधा निज-सर्व-शक्तिः भगवान का नाम में सब शक्ति है, जैसे भगवान में सब शक्ति है। ऑलमाइटी। इसी प्रकार भगवा का नाम में भी सब शक्ति है। एब्सल्यूट; देर इस नो डिफरेंस दी नाम एंड दी पर्सन ऑफ़ दी सुप्रीम पर्सनालिटी ऑफ़ गोडहेड। अदेरवाइस हमलोग क्यों भगवान का नाम जपते हैं? भगवान। तो यदि हमलोग सब समय भगवान का नाम लेंगे, जैसे भगवान खुद भी बताते हैं "मन मना भव मद भक्तो" केवल आप भगवान का नाम लीजिये तो भगवान का भक्त हो जाइये। कोई मुश्किल नहीं। केवल भगवान का नाम लो, जो नाम आपको पसंद लगे, पर भगवान का नाम लें चाहिए। और यदि भगवान को ही निराकार कर दिया तो उनका नाम । तो वो यहीं ख़तम हो गया, बस। तो इधर ऋषबदेव भगवान का अवतार है; कुछ उपदेश उनका लड़कन के लिए दे रहे हैं, रिटायर। पहले बड़े-बड़े राजा लोग रिटायर करते थे। आजकल जो रिटायर का नाम ही नहीं है जब तक गोली से नहीं मार दिया जाये। रिटायर का नाम ही नहीं लेते। बाकि रिटायर होना चाहिए। ये जो हमारा वैदिक वर्णाश्रम धर्म का विचार है, बहुत वैज्ञानिक। कुछ दिन ब्रह्मचारी, स्टूडेंट, और कुछ दिन गृहस्थ। ये नहीं है की सारा जीवन गृहस्थ ही रहे। ये वैदिक सभ्यता है। कुछ दिन रह करके, २५-५० इयर्स। जिस समय इन्द्रिय सब्र बड़ा तेज है, ये गृहस्थ आश्रम जो है इन्द्रिय भोग करने के लिए एक लाइसेंस है, कंसेशन। इसका कोई जरूरत नहीं है। बाकि आदमी ये सब नहीं कर सकता है, आहिस्ते-आहिस्त।, पहले स्टूडेंट लाइफ, ब्रह्मचारी, उसको सिखाया जाता है व्हाट इस दी वैल्यू ऑफ़ लाइफ।

ब्रह्मचारी गुरूकुले
वसन दांतो गुरोर हितम्

उसको शांत दांतो, ये सिखाया जाता है। पहले से ही "मातृवत परदारेषु" ये सिखाया जाता है। जाओ, घर-घर में जाओ, 'माताजी थोड़ा भिक्षा दीजिये। वो माताजी बोलने को सीखता है। परः स्त्री; पर: स्त्री सब माता है। ये चाणक्य पंडित का भी उपदेश है

मातृवत परदारेषु
पर-द्रव्येषु लोष्ट्रवत
आत्मवत् सर्व-भूतेषु
यः पश्यति स पंडितः

चाणक्य पंडित समझा रहा है ये पंडित कौन है। जो पर स्त्री को माता के समान देखता है माताजी। तो शुरू से सिखाया जाता है। वो शुरू से पर स्त्री को माताजी बोलने को सीख जायेगा, फिर वो और कुछ नहीं बोल सकेगा। 'मातृवत परदारेषु' और 'पर-द्रव्येषु लोष्ट्रवत' और दुसरे का जो धन है वो रास्ता का कूड़ा समझता है। जैसे कूड़ा कोई छूटा भी नहीं, इसी प्रकार सिखाया जाता है। 'पर-द्रव्येषु लोष्ट्रवत'। 'आत्मवत् सर्व-भूतेषु' और दुसरे जीव जो है उसका अपना आत्मा जैसे समझो। एने कम-से-कम इतना तो सीखो की तुमको अगर कोई गला काटने को आया, तो तुम्हारा जो तकलीफ होता है, तुम दुसरे का गला क्यों काटते हो। क्यों स्लॉटरहॉउस बनाते हो। ये सब जो समझता है तीन चीज़ 'आत्मवत् सर्व-भूतेषु' तो 'यः पश्यति स पंडितः'। ये तीन चीज़ उसका एजुकेशन हो गया

मातृवत परदारेषु
पर-द्रव्येषु लोष्ट्रवत
आत्मवत् सर्व-भूतेषु

वो पंडित है। न तो बी ए, म ए, पास करके पंडित होता है। ये पंडित हमारा वैदिक मान्यता नहीं है। पंडित है हम बी ए, में पास करें और दुसरे स्त्री से भी संपर्क रखें और खूब मांसाहारी भक्षण करें और दुसरे का पैसा मिल जाये तो जल्दी से चोरी कर लें। थिस इस नॉट पंडित। थिस इस मूर्ख। थिस इस वैदिक सिविलाइज़ेशन। इसीलिए ब्रह्मचारी बनाया जाता है। शांता दांता, किस तरह से इद्रिया संयम करना है, किस तरह से गुरु के लिए सब कुछ सैक्रिफाइस करना है। गुरु हितम। ब्रह्मचारी का जीवन है केवल गुरु का हित के लिए, अपने हित के लिए नहीं। ये सिखाया जाता है। अगर वो ब्रह्मचारी जीवन भर नहीं रह सकता है तो गुरु उसको आदेश देता है बेटा तुम जा करके कोई अच्छी लड़की से शादी कर लो। गृहस्थ आश्रम। फिर उसका फाउंडेशन शुरू से बहुत अच्छी तरह से सिखाया गया है, वो गृहस्थ लाइफ भी संयम। भगवद-गीता में है "धर्म अविरुद्ध कामोस्मि" कामोस्मि, लस्टी डीसाइरस। सेक्स लाइफ जो की धर्म का विरुद्ध नहीं है, वो मैं हूँ, कृष्णा बोलता है। सेक्स लाइफ ख़राब नहीं है यद्यपि वो नियम का अनुसार। तो ये गृहस्थ लाइफ जो है एक सेक्स लाइफ का कंसेशन। कोई जरूरत नहीं है परन्तु अगर कोई इतना जल्दी आगे नहीं बढ़ सकता है, तो उसके लिए कंसेशन। दाट इस गृहस्थ। फिर २५-५० वर्ष तक दुनिया को भोग कर लो। फिर वो आगे उसका जो फाउंडेशन है, उसके लिए; फिर बोलता है बड़े-बड़े राजा सब छोड़ देते हैं, अब गृहस्थ का जरूरत नहीं है। ऋषबदेव बहुत भरी राजा, सम्राट सारे विश्व का, वो रिटायर करने के पहले अपना बच्चे लोग को उपदेश दे रहा है। वोही उपदेश आपलोग को दो-चार लाइन सुना रहा हूँ। तो क्या कहते है, "मेरे बच्चे देखो"

नायं देहो देहा-भाजाम नृलोके
कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजाम ये

"बेटा देखो ये जो शरीर मिला है, मनुष्य शरीर, ये साधारण शरीर नहीं है। 'बहुसंभावांते'। ८४,०००,००० योनि ब्रह्मण करते-करते, ८००००० लाख क्यों, तिरासी लाख जन्म जब मिल जाता है तब ये ह्यूमन बॉडी मिलता "तथा देहान्तर प्राप्ति" भगवान ये ही स्वय शिक्षण दे रहें पहले ही ये देहान्तर होता है। ऐसा नहीं के ये शरीर जल गया और राख हो गया बस ख़तम हो गया। नास्तिक लोग जैसा समझते हैं "भूतस्य देवस्य पुनरागमनं कुतः" मजा करो, पाप-पुण्य का विचार का कोई जरूरत नहीं है, ये तो शरीर जला दिया जायेगा, फिर कौन आता है कौन जाता है, सब । ये सब मुर्ख लोग बोलते हैं बाकि ये नहीं। बात ये है वो जो आत्मा है बहुत खुद्र सूक्ष्म है "केशाग्र-शत-भगस्य शतधा कल्पितस्य च" वो जो केश षत भाग है उसको दस हज़ार भाग कीजिये वो एक भाग जो है वो आत्मा का स्वरुप है जो चींटी में भी है और हाथी में भी है। वो मन, बुद्धि, अहंकार शरीर से और एक गर्भ में प्रवेश करते हैं फिर उसको और एक शरीर मिलता है। इसका नाम है "मृत्यु संसार वर्त्मनि"। भगवान खुद कहते हैं

अप्राप्य माम् निवर्तन्ते
मृत्यु-संसार-वर्त्मनि

यदि इस जीवन में आप ये साधन नहीं किया की भगवान के पास जायेंगे और जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि में नहीं रहेंगे इसका सब पथ और निर्देश भगवद-गीता में है, शास्त्र में है, इसको अगर नहीं पड़े, नहीं सीखे तो कुत्ता, भेड़ी का जीवन व्यापन किया फिर ये सब करने के बाद फिर वोही "मृत्यु संसार वर्त्मनि"। भगवान खुद बताते हैं भगवद-गीता में की

असश्रद्धधानाः पुरुष
धर्मस्यास्य परंतप
अप्राप्य माम् निवर्तन्ते
मृत्यु-संसार-वर्त्मनि

ये जो मैं भगवद-गीता में उपदेश दे रहा हूँ इसको अगर कोई ग्रहण न करे असश्रद्धधानाः की श्रद्धा नहीं है, ये बकने दो, और अगर हम भी बोलते हैं तो इधर-उधर अंट-शंट अर्थ लगाकर के हमारा भी सर्वनाश करते हैं और दुसरे को भी सर्वनाश करते हैं। बाकि भगवद-गीता का उद्देश्य क्या है। भगवद-गीता का उद्देश्य है ये जो हमलोग भगवान को भूल गए हैं, भगवान क्या है जानते ही नहीं उसको सीखाने के लिए भगवान आते हैं।

परित्राणाय साधुनाम्
विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म-संस्थापनार्थाय

भगवान सब बता दिए हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य
ग्लानिर् भवति भारत

ये ग्लानि है। धर्मस्य ग्लानि, जो भगवान बताते हैं उसको धर्म नहीं मानते, इधर-उधर का बात सब करते हैं। ये ग्लानि है। तो जब ग्लानि होती है, तब भगवान स्वयं आते हैं, आकर के समझाते हैं की बेटा इसको समझो और भगवान खुद भी आते हैं, उनका अवतार भी आते हैं और उनका भक्त भी आते हैं उनका नौकर भी आते हैं, चाकर भी आते हैं, ये ही एक बात समझने के लिए जो तुम जो भगवान को छोड़ दे कर ये स्वाधीन हो गया है, ये तुम्हारा बिलकुल बेवकूफी है।

प्रकृतेः क्रियमाणानि
गुणैः कर्माणि सर्वशः
अहंकार-विमूढ़ात्मा
कर्ताहं इति मन्यते

जो मुर्ख लोग हैं वो समझते हैं की हम अब स्वाधीन हो गए हैं। क्या तुम स्वाधीन हो गए हो? यू आर कम्प्लीटली अंडर दी कण्ट्रोल ऑफ़ मटेरियल नेचर।

दैवी ह्य एषा गुणमयी
मम माया दुरत्यया

यू कन्नोट गेट आउट, इसके बहार तुम जा ही नहीं सकते। क्यों, प्रकृति का कण्ट्रोल है तुम्हारा ऊपर। और ये भगवान का चरण में शरण कराने के लिए।

माम् एव तु प्रपद्यन्ते
मायाम एताम् तरन्ति ते

अस सून अस, जब हमलोग भगवान के शरण में शरणागत हो जाते हैं, फिर माया की कण्ट्रोल नहीं है। ये सब है शास्त्र में, सब जगह में है। इसीलिए एक ही बात सब शास्त्र में बताते हैं और कुछ नहीं की भगवान का शरणागत हो जाओ, तुम को सुख मिलेगा। और कोई रास्ता, जितना तुम प्लान कर रहे हो, किसी रास्ता में तुमको सुख नहीं मिल सकता।

मोघाशा मोघ-कर्माणो
मोघ-ज्ञाना विचेतसः

ऋषबदेव भी वोही बात बोल रहा है की देखो जी मेरे बेटे ये जो है शरीर मनुष्य से है "नायं देहो" "नायं देहो देह भाजां" ये शरीर मैं नहीं हूँ। बाकि हम अपना कर्मफल से क्यूंकि ये दुनिया को हम भोग करने को चाहता हूँ इसलिए भोग करने का योग्य हमको एक शरीर मिला है। मनुष्य जो जिसका जैसा कर्म फल है, किसी को मनुष्य श्री मिला है, किसी को कुत्ता का शरीर मिला है, किसी को देवता का शरीर मिला है, किसी का मछली का शरीर मिला है, सब जीवात्मा है।

सर्व-योनिषु कौन्तेय
सम्भवन्ति मूर्तयः यः
अहम् बीज-प्रदः पिता

सबके के लिए मैं पिता हूँ। ये नहीं है खाली मनुष्य के लिए है, और छाग के लिए नहीं है, नहीं। तो शरीर हमको मिला है, कुत्ता को भी मिला है, बाकि हमारा विशेषता है ये शरीर का। वो विशेषता क्या है? की कुत्ता, भेड़ि, और गधा, सूअर ऐसे परिश्रम नहीं करना चाहिए। ये बताते हैं। जो चार प्रकार के मनुष्य होते हैं: एक तो कुत्ते के ऐसे होते हैं, और सभी खरा, उष्ट्रक, खरैह, एक शरीर होता है कुत्ता का ऐसे, एक शरीर होता है ऊँठ के ऐसे, एक शरीर होता है गधा के ऐसे, और एक शरीर होता है सूअर के ऐसे। इसका सब बड़ा विश्लेषण है।

स्व-विद-वराहष्टृ-खरैः
संस्तुतः पुरुषः पशुः

अगर इन ह्यूमन सोसइटी वो कुत्ता चार पैर है, ऊँठ चार पैर है, गधा भी चार पैर है, और सूअर भी चार पैर है, बाकि हमलोग दो पैर होते हुए भी स्वभाव यदि कुत्ता, उष्ट्र, गधा, और सूअर का ऐसे हुआ तो इसके लिए सावधान करते हैं। ये मनुष्य जीवन मिला और कुत्ता और ऊँठ, गधा और सूअर, ऐसे का काम नहीं करना चाहिए। उसके के लिए नहीं। "कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजां ये" न कष्टान। ये लोग पशु लोग जितना दिन भर परिश्रम करते हैं विशेष कर के ये जो सूअर है, आप लोग देखे हैं दिन-रात भर घूमता फिरता है किसके लिए विद-भुजां कहाँ मैला है, दौड़ो उसको ले के आओ, खाएंगे हम और जहाँ मोटा-ताज़ा हो गया बस इन्द्रिय तर्पण, उसमे कोई विचार नहीं है सूअर, इसलिए बोलता है सूअर। जिसका इन्द्रिय तर्पण में कोई विचार ही है नहीं, खाने में कोई विचार है नहीं, तो उसको मना करते हैं। बेटा, ये जो मनुष्य शरीर मिला है, ये शरीर को वो सूअर के जैसे तुम्हारा बिताना उचित नहीं है। बड़ा स्ट्रांग वर्ड यूज़ किया है, बाकि ठीक किया। ये शास्त्र में ये गलत बात नहीं बोलते हैं। हमलोग केवल परिश्रम करें और जो मिलेगा खान-पान का विचार नहीं है और खूब मोटा-ताज़ा हो जाये और केवल इन्द्रिय तर्पण करें, सेंस ग्रटिफिकेशन। थिस इस नॉट ह्यूमन लाइफ। थिस इस थे फर्स्ट पोजीशन। "नायं देहो देहा-भाजाम नृलोके" और ज शरीर मिलता है उसमे शायद हो सकता है की एहि काम है क्यूंकि वो जानवर। तो मॉडर्न सिविलाइज़ेशन, ये तो मॉडर्न नहीं है। ये तो बहुत पुराणी बात है। परन्तु ह्यूमन सोसाइटी में सब प्रकार के आदमी रहते हैं। आजकल ज्यादा हो गया सूअर के ऐसे। नहीं तो सूअर का ऐसे मटेरियल वर्ल्ड है, नहीं तो क्यों बोलै स्व-विद-वराहहाष्टृ-खरैः। देखिये आपलोग को थोड़ा सा हम समझाते हैं की ये आजकल का जो एजुकेशन है वो, दुखी न मानिये, कुत्ता होने के लिए। कुत्ता होने के लिए क्यों बोलते हैं तो आप खूब पास कर लीजिए बी ए, एम् ए, पीएचडी, जो चाहिए लेकिन आपको अगर नौकरी न मिले तो फिर आप कुत्ता से भी नीच। क्यों लिखा-पड़ी से करते हैं, वो ही होता है कोई नौकरी है आपके पास? नो वेकन्सी, नो वेकन्सी। अभी कागज़ में निकला तहत ५०० पोस्ट के लिए दो लाख एप्लीकेशन। व्हाट इस दी वैल्यू ऑफ़ थिस एजुकेशन? एजुकेशन वो ही है जो; हमारा एडुकेटेड किसको बोला जाता है ब्राह्मण, वो किसी का नौकर नहीं होगा, क्षत्रिय किसी का नौकर नहीं होंगे, वैश्य किसी का नौकर नहीं होगा, केवल शूद्र "परिचर्यात्मकं कार्यं शुद्ध ब्रह्म स्वभावजं" भगवद-गिता में है। इसलिए कली में बोलता है "कलौ शूद्र सम्भवः"। कलियुग में प्रायः सभी शूद्र हैं। ये परिस्थिति है। बाकि मनुष्य समाज जो है उसमे चार वर्ण होना चाहिए। ये भगवान स्वयं बताते हैं

चातुर-वर्ण्यं मया सृष्टम्
गुण-कर्म-विभागशः

चार विभाजन अवश्य होना चाहिए। नहीं तो मनुष्य समाज विश्रृंखल हो जायेगा। ब्राह्मण जो है वो हेड, ब्रेन, क्षत्रिय जो है वो बाहु, आर्म्स, प्रोटेक्शन, तो गिव प्रोटेक्शन तो दी सोसाइटी, ब्राह्मण जो है वो ब्रेन है उपदेश देगा शास्त्र से की ऐसा जीवन यापन करना चाहिए और वैश्य खाद्य द्रव्य उत्पादन करने, ये भी जरूरत है जैसे ये शरीर में ब्रेन भी चाहिए, हाथ भी चाहिए, पेट भी चाहिए, और पैर भी चाहिए। इसी प्रकार "चातुर-वर्ण्यं मया सृष्टम्" केवल अगर शूद्र-ही-शूद्र हो गया तो वैसे ही वरशिप हो गया तो ये समाज का श्रृंखलन नष्ट हो जायेगा। ये ऋषबदेव बता रहें हैं इसी प्रकार विश्रृंखल सोसाइटी में नहीं रहना चाहिए मनुष्य जीवन जो है और उसको ठीक-ठीक व्यवहार करना चाहिए क्यूंकि मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है? ये जो मृत्यु संसार वर्त्मना ये जो एक शरीर छोड़ के और एक शरीर ग्रहण करा इसे कोई जानता ही नहीं। बाकि जो जानने वाला है "धीरस तत्र न मुह्यति" भगवान कहते हैं

देहिनो ऽस्मिन् यथा देहे
कौमारं यौवनं जरा
तथा देहान्तर-प्राप्तिर
धीरस तत्र न मुह्यति

जो धीर हो। तो सब अधीर है, धीर कोई नहीं है। इसीलिए ये चैतन्य महाप्रभु का जो मूवमेंट है, ये सब के लिए है। धीर और अधीर। गोस्वामी लोग के विषय में लिखा है

कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेममृतम्भो-निधि
धीराधिर-जन-प्रियौ प्रिय-करौ

ये जो हमलोग इधर बैठे हैं ये कोई चुन-चुन के नहीं बैठा है ये सब धीर बैठ जाएँ, न अधीर भी बैठे हैं, कोई बात नहीं, कृष्णा कीर्तन ऐसा ही है, सब कोई मिल करके धीर होये, अधीर होये, मूर्ख होये, पंडित है, धनि है, निर्धनी है, ब्राह्मण है, शूद्र है, सभी(नो ऑडियो)। परन्तु तपस्या: "तपो दिव्यम" ये बात ऋषबदेव बता रहें हैं। ये राजा लोग भी, विशेष करके ब्राह्मण, क्षत्री एक टाइम में रिटायर हो करके केवल तपस्या करने के लिए "तपो दिव्यम" ये करनी चाहिए। अगर तपस्या नहीं करते हैं तो भगवान जैसा बताते हैं "माम् अप्राप्य"। तपस्या करने से भगवान से आपका संपर्क टूट तो नहीं सकता है जो हम भूल गए हैं, वो तपस्या से फिर उसका उद्बोधन हो सकता है। और अगर तपस्या नहीं करेंगे तो फिर निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्त्मनि, फिर लौट जाना पड़ेगा। तो एक दफे मनुष्य हो, एक दफे पेड़ हो, एक दफे गधा हो, एक दफे देवता हो, ऐसे चलेगा। तो चैतन्य महाप्रभु इसलिए ये शिक्षण दिया है

ये ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोण भाग्यवान जीव
गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाय भक्ति-लता-बीज

इसी प्रकार जीव ब्रह्मण कर रहे हैं। कभी ऊँचा, कभी नीचे, मृत्यु संसार वर्त्मनि, मरने तो पड़ेगा। ये जो बड़े-बड़े सब साइंटिस्ट हमलोग का भी है। तो भगवना जो बोलते हैं

जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-
दुःख-दोषानुदर्शनम्

मान लिया तुम साइंटिफिक प्रोसेस से सब दुःख का प्रसादन कर लिया बाकि ये जो चार चीज़ है, ये असल तुम्हारा दुःख है जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि। जन्म लेने पड़ेगा, मरने पड़ेगा, और बुड्ढा होना पड़ेगा, और रोग से भोगना पड़ेगा। तो उसका कोई सलूशन है साइंटिफिक, नहीं। और उसका सलूशन एक ही है की तपो दिव्यम। दिव्या ज्ञान लाभ करने के लिए, भगवान को लाभ करने के लिए तपस्या। तो कलियुग में तपस्या करना भी बड़ा मुश्किल है। क्यूंकि कलियुग का जो जीव है बहुत पतित है। प्रायेण अल्पायु, एक तो अल्पायु। अभी कलियुग में कम-से-कम एक सौ वर्ष जीने का ऐसे शास्त्र में लिखा है। कौन जीता है एक सौ वर्ष? ये पचास-साठ में सब ख़तम हो जाते हैं। तो

प्रायेनाल्पायुष: सभ्य
कलाव अस्मिन युगे जनः
मंदः सुमंद-मतयो
मंद-भाग्य ह्य उपद्रुत:

ये कलियुग का है। इसलिए कलियुग में जो तपस्या है ये हरिकीर्तन। और तपस्या कुछ नहीं, ब्रह्म में नहीं जा सकेंगे, और पहाड़ में नहीं जा सकेंगे, और जैसे बड़े-बड़े सब तपस्वी हैं, ये सब कुछ होने वाला नहीं है। इसलिए चैतन्य महाप्रभु इसीको प्रेस्क्राइब किया है की

हरेर नाम हरेर नाम
हरेर नामैव केवलम्
कलौ नास्त्य एव नास्त्य एव
नास्त्य एव गतिर अन्यथा

कलयुग में और कुछ तपस्या हो नहीं सकेगा। एक तपस्या करो भगवान का नाम जपा करो। वो कहीं भी आप कर सकते हैं, मंदिर में आ करके, घर में बैठ करके। तो यूरोप, अमेरिका में ये सब कुछ ले रहे हैं। ये नहीं की ये हमारा शिष्य खाली हरिनाम कर रहे हैं। परन्तु जो बहार हैं, वो भी सब हरिनाम करने शुरू किया है। उसका सब तस्वीर निकला है। तो हमारा भारतवर्ष का ये जो सृष्टि है क्यों हमलोग छोड़ देंगे। कम-से-कम इसमें आपको कोई खर्च नहीं है, कोई तकलीफ नहीं है। कहीं भी रहे, गृहस्थ रहे, ब्रह्मचारी रहें, और ब्रह्मण होये, चामर होये, कोई विचार नहीं। केवल हरिनाम कीर्तन।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे रामा हरे रामा
रामा रामा हरे हरे

गेस्ट: जय हो डिसाइपल्स: जय श्रीला प्रभुपाद थैंक यू वैरी मच