760114 - Lecture SB 05.05.02 Hindi - Calcutta
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A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Prabhupāda:
- mahat-sevāṁ dvāram āhur vimuktes
- tamo-dvāraṁ yoṣitāṁ saṅgi-saṅgam
- mahāntas te sama-cittāḥ praśāntā
- vimanyavaḥ suhṛdaḥ sādhavo ye
- (SB 5.5.2)
(Hindi)
HINDI TRANSLATION
- महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस
- तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम
- महानतः ते सम-चित्तः प्रशांता
- विमन्यवः सुहृदः साधवो ये
(श्री. भा. ५.५.२)
तो यदि हमलोग मुक्ति पथ में जाने को चाहता हूँ तो महत-सेवा, महात्मा को सेवा, ये करनी चाहिए। नरोत्तम दास ठाकुर सेस "छाड़िया वैष्णव सेवा निस्तार पायेचे केबा"। तो महात्मा का अर्थ होता है वैष्णव। कल ये समझाया गया था की भगवान किसको महात्मा बोलते हैं। व्हाट इस धाट साउंड? भगवान महात्मा किसको बोलते हैं। "महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:" महात्मा जो है दैवी प्रकृति का आश्रित है, भौतिक प्रकृति का आश्रित नहीं है। दैवी, हाँ, तो दैवी प्रकृति उसका लक्षण क्या चीज़ है, "भजन्ते माम् अनन्य मनसो"। जो भगवत भजन करता है अनन्य भाव से, वो महात्मा है, वो साधु है।
- अपि चेत सु-दुराचारो
- भजते माम् अनन्यभाक्
- साधु एव स मन्तव्यः
साधु होना चाहिए, महात्मा होना चाहिए, तभी मुक्ति का जो पथ है वो खुल जायेगा। हाँ, "मुक्ति स्वरूपेण अवस्थिति"। मुक्ति का अर्थ होता है स्वरुप में, (व्हाट इस दिस साउंड ही इस मेकिंग? ये जो हमलोग हैं, ये मनुष्य शरीर है, कुत्त्ता का शरीर है की पेड़ का शरीर है की देवता का शरीर है, हिन्दू का शरीर है, मुसलमान का शरीर है, ये स्वरुप नहीं है। ये शरीर पलटता है। जैसा ड्रेस है। आज ये ड्रेस में हैं, कल दुसरे ड्रेस में हैं, फिर तीसरे ड्रेस है, इसी तरह "वासांसि जीर्णानि यतः विहाय", जैसा अपना कपड़ा बदलता रहता है, एक छोड़ के और एक, इसी प्रकार हमारा स्वरुप दूसरा चीज़ है और ये कपडे से मने ढकाव, ये जो भौतिक शरीर है, जैसे कोट और शर्ट है जिससे हमारा शरीर ढका रहता है, इसी प्रकार ये जो शरीर ये नित्य नहीं है। हाँ, ये "भूत्वा भूत्वा प्रलीयते", एक शरीर छोड़ देना पड़ता है और दूसरा शरीर ग्रहण करने पड़ता है। तो ये जो शरीर ये हमारा स्वरुप नहीं है। हाँ, ये ज़बस्दस्त किसी कारण से ये स्वरुप को हमको ग्रहण करने पड़ा। उसका नाम है माया। तो ये स्वरुप हमलोग जब छोड़ देंगे, असल स्वरुप, ये तो मिथ्या स्वरुप है। जो असल स्वरूप है उसमे जब सिद्ध हो जायेंगे "स्वरूपेण अवस्थिति" "मुक्ति हित्वा अन्यथा रूपम" ये जो अलग-अलग शरीर मिलता है इसको छोडकरके, जब हम असल शरीर में प्रतिष्ठित रहेंगे, उसका नाम है मुक्ति। असल शरीर तो हमलोग जानते ही नहीं। वो कैसे जानेंगे? जब मुक्त होये तभी तो जानेगा। सभी जानकारी शरीर हम हैं, आप हैं, पिताजी मर गया, शरीर थोड़ी रहा, चिल्लाता है 'पिताजी चला गया, चला गया'। कहाँ चला गया?जिसको पिताजी देखा था वो तो लेता हुआ है। वो चला कहाँ गया? बाकिवो माया है। पहले देखा नहीं। अब देखता है। वो जो असल पिताजी चला गया। तो क्यों मुक्त नहीं है? वो कैसे देखेगा कौन पिता है कौन माता है, बस भगवान है। जब मुक्त हो जायेंगे तब देखेंगे सब। इसलिए उसको कहते है "स्वरूपेण अवस्थिति"। तो ये मुक्त होने का जो रास्ता है, वो बताते हैं महत सेवा। जस्ट टॉय टू सर्वे महात्मा।" द्वारं आहुर विमुक्तेस"। यदि आप मुक्ति चाहते हैं, स्वरुप में अवस्थित होने को चाहते हैं, तो महत सेवा कीजिये। यस,सो, महत कौन है? ये भगवान बताये हैं। जो हमारा इच्चक भक्त है, उसमे कोई भेद ही नहीं है, वो महात्मा है।
- महात्मनस तू मां पार्थ
- दैवीं प्रकृतिं आश्रितः
एक और जगह बताया है महात्मा "स महात्मा सुदुर्लभः"
- बहुनाम जन्मनाम अंते
- ज्ञानवान् माम् प्रपद्स वो महात्मा सुदुर्लभ, और ये दाड़ी रख के, कपड़ा बदल के महात्मा जो चलता है, चलता है। बाकि पॉलिटीशियन भी महात्मा होते हैं। ये लौकिक है। आध्यात्मिक जो है वो महात्मा का अर्थ होता है जो की शुद्ध भक्त है।
- अन्याभिलाषिता-शून्यम्
- ज्ञान-कर्मादि-अनावृत्तम्
- आनुकुल्येन कृष्णनु-
- शिलनं भक्तिर उत्तम
उसको महात्मा कहते हैं। तो वो महात्मा की सेवा करनी चाहिए। "महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस"। और दूसरा रास्ता क्या है, भक्ति जो है जैसे सूर्य किरण और अंधकार। हाँ, कोईँ-कोइ कमरा एकदम अंधकार होता है दिन में भी अंधकार होता है। मुंबई में भी ऐसे बहुत है। बत्ती डाल के, न्यू यॉर्क में भी बहुत है। सूर्य का किरण देखने को ही नहीं मिलेगा। पश्चिम देश में सूर्य का किरण भी बहुत है नहीं। तो ये जो मुक्ति है ये ज्योति। इसलिए का अपोजिट है 'तमसी मा ज्योतिर गमय'। ये जो मनुष्य जीवन मिला है अंधकार में रहो और ज्ञान में नहीं रहो, ये दुनिया जो है भौतिक जगत, ये तमः है तमसी, इसलिए बोलता है उत्तम। उत्तम का अर्थ होता है क्या जो की ये भौतिक अंधकार में है नहीं। उसका नाम है उत, उद्गाता तमा यस्मात, उत्तम। जो भौतिक भर यहाँ नहीं है वो उत्तम। भक्तिर उत्तम, रूप गोस्वामी बताये हैं "आनुकुल्येन कृष्णनु-:शिलनं भक्तिर उत्तम"। उत्तम, जहाँ कोई तमसी व्यापर नहीं है। वो भक्ति उत्तम है। तो दो रास्ता बताते हैं। एक रास्ता मुक्ति और एक रास्ता तम। हाँ, तो दो रास्ता के लिए दो काम है। जो महत सेवा है वो ज्योति में जाने के लिए है। और तम द्वारं, जो तम द्वार है रास्ता क्या है "योषितां संगी-संगम"। योषित का अर्थ होता है प्रकृति स्त्री जो की भोग करने के चीज़ है। हाँ, जो भोग, भौतिक जगत मने सब कोई अच्छी तरह से भोग करने को चाहते हैं। तो उसका नाम है तम। "योषितां संगी-संगम", शरीर रखने के लिए हाँ, जरूर आहार, निद्रा, भय, मैथुन चार चीज़ का थोड़ा बहुत जरूरत है, परन्तु आध्यात्मिक उन्नति के लिए ये सब आहिस्ते-आहिस्ते-आहिस्ते परित्याग करना चाहिए। जैसे गोस्वामी लोग किया था वृन्दावन में। "निद्राहार-विहारकादि-विजितौ" ;रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी मिनिस्टर थे नवाब हुसैन साहब के शाषण में, तो वो सब छोड़ दिया। "त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम सदा तुच्च-वत्" ये सब गोस्वामी लोग मिनिस्टर थे और उनका उठना-बैठना बड़े-बड़े सेठ से, बड़े-बड़े जमींदार से, बड़े-बड़े मर्चेंट से। इस तरह से उठता-बैठता कौन है? कहते हैं त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति, बड़े-बड़े आदमी को कहते हैं मंडल पति, तो बहुत आदमी को कण्ट्रोल करता है। मंडल, मंडल पति, तो उसको सब छोड़ दिया। त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम, कैसा छोड़ दिया, सदा तुच्च-वत्, जाने दो, उसमे क्या, छोड़ दिया। रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी नवाब हुसैन के बड़े-बड़े मीनिस्टर थे। उसका नाम भी बदल दिया था, साकार मल्लिक और दभीर खास। मुस्लमान ही हो गया था। पहले तो मुस्लमान से उठता-बैठता था, उसको समाज से निकल दिया जाता था। रूप गस्वामी सारस्वत ब्राह्मण समाज से उनको निकल दिया था। कोई मिलता नहीं। उस अवस्था में वो थे। चैतन्य महाप्रभु उनको तार दिया और उनको गोस्वामी बना दिया। दभीर खास, साकार मल्लिक चैतन्य महाप्रभु की कृपा से वो सनातन गोस्वामी जो की गौड़ीय संप्रदाय का लीडर "वन्दे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ। रूप सनातन और उनका असिस्टेंट श्री जीव गोस्वामी और गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ गोस्वामी और रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ये छ गोस्वामी सब वृन्दावन का अविष्कार किया। तो छोड़ दिया "तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम"। ये जो सब एसोसिएट, संघ है ये उच्चित नहीं है, इसको छोड़ दो, भोगी संप्रदाय। और "कौपीना-कंथाश्रितौ" "त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम सदा तुच्च-वत्"। फिर क्या बना। ये तो छोड़ दिया। छोड़ के कुछ तो पकड़ना है। हवा तो नहीं हो जाना है, एक छोड़ दिया बस हवा ही हो गया, नहीं, छोड़ना मने कोई बुरा चीज़ आये उसको छोड़ दो और अच्छा चीज़ को पकड़ो तब छोड़ने का मतलब निकलता है। सभी छोड़ दिया तो शुन्य हो गया। शून्यवादी, इसमें कुछ लाभ नहीं है। तो गोस्वामी लोग "त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम सदा तुच्च, उसको तुच्छ समझ कर के कोई कीमत ही है नहीं ऐसे समझा। छोड़ दिया। फिर लिया क्या? ये भी तो प्रश्न होगा। तो कहते हैं
- त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम सदा तुच्च-वत्
- भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया कौपीन-कंथाश्रितौ
ग्रहण किया कौपीन कंथा। हाँ, वृन्दावन में बाबाजी लोग आप देखे हैं थोड़ा ऐसे कपड़ा है बस ये तो नक़ल भी बहुत है बाकि असल में गोस्वामी लोग थोड़ा ही बदन ढाकने के लिए कौपीन कंथा आश्रय कर लिया। किस लिए? चैतन्य महाप्रभु को मिशन को चलाने के लिए। कौपीन कंथा आश्रित किया। हाँ, भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया, दीन-गणेश, गण का मने साधारण, पीपल इन जेनरल। उनको कृपा करने के लिए। "भूत्वा दीन-गणेशकौ करुणया कौपीन-कंथाश्रितौ"। हाँ, ये जो सन्यास लेने का अर्थ क्या होता है? सन्यास लेने का अर्थ एहि है की दीन-गणेशकौ करुणया; जो दीन-हीन साधारण मनुष्य है उसको कृपा करने के लिए। हाँ, (१४ ३० स्लोका)। हाँ, ये सब भागवत में आता है। ये महत लोग, महात्मा जो है वो फ़क़ीर हो जाते हैं। कौपीन कंथा का आश्रय ग्रहण करते हैं। क्यों? दीन-गणेशकौ करुणया। ये जो दीन-हीन गृहस्थ है को कृपा करने के लिए। क्या, भिक्षुख होक जाते हैं। हमारे देश में भिक्षुक कोई भी आये, चोर भी अगर भिक्षुक होकर आये जैसे रावण आया था सीता को, उस भीतर में सीताजी को हरण करने के लिए और बना भिक्षु।
ऐसे बहुत भिक्षु होते हैं। उस समय एक ही रावण था, आजकल बहुत रावण हैं। तो कलियुग है। बाकि भिक्षुक होने का कारण यही है। भिक्षुक कहीं भी जाये, आज भी भारतवर्ष में भिक्षुक जाये, सन्यासी की तो बात छोड़िये, कुछ न कुछ देता है। ये जो उसका धर्म है। आया है मांगने, दो, थोड़ा सा आटा दो, थोड़ा सा चावल दो, एक टुकड़ा रोटी दो, ये नियम है। तो भिक्षुक होने से सब का कृपा पात्र हो जाता है। हाँ, उसमे एक मौका मिलता है जो सब कोई 'आइये महाराज, बैठिये, लीजिये चावल। तो उसको बैठने का मौका मिलता है, और बैठने से कुछ भागवत चर्चा होती है। तो उसमे गृहस्थ का उपकार होता है। उसको एक टुकड़ा रोटी दिया जाता है, थोड़ा चावल दिया जाता है, तो उसको थोड़ा जगाने के लिए। ये जो मस्त है तो ये समझते है ये हमारा परिस्थिति बड़ा सुन्दर है। हमारा स्त्री है, पुत्र है, रूपया है, पैसा है, नौकर है, चाकर है, ये ही सब हमको रक्षा करेगा। ये बात नहीं है। ये तुमको रक्षा नहीं कर सकेंगे। "पश्यन अपि न पश्यति" हाँ,
- देहापत्य-कलत्रादिश्व
- आत्म-सैनेश्व असत्स्व अपि
- तेषां प्रमत्तो निधनं
- पश्यन्न अपि न पश्यति
भागवत में सुखदेव गोस्वामी कहते हैं। जो समझता है, ये जो हमारा परिस्थिति है अति सुन्दर स्त्री है, और पुत्र है और पौत्र है, बैंक बैलेंस है, बिज़नेस है, अच्छा माकन है। अब यमराज साला क्या करेगा हमारा। ये बात नहीं है। यमराज नहीं छोड़ेगा। ये जानते हैं की :पश्यन्न अपि न पश्यति, ये सब हमको रक्षा नहीं कर सकेंगे। उनको तो रक्षा भगवान ही कर सकता है। बाकि वो तो भगवान के तरफ नहीं जाता है। क्यों? प्रमत्तया, पागल।
- देहापत्य-कलत्रादिश्व
- आत्म-सैनेश्व असत्स्व अपि
जानते हैं ये सब टिकेगा नहीं। दो दिन के लिए है, सब ख़तम हो जायेगा। ये भी ख़तम हो जायेगा और ये हमारा जो सोल्जर है, जिसका ऊपर निर्भर करके मैं समझता हूँ बड़ा सुरक्षित है, ये मूर्खता है। तो ये जानते हैं इसलिए कहते हैं :पश्यन्न अपि न पश्यति। देखता है और सब आदमी को ये नहीं कर सका कुछ, चला गया, केवल रोता है 'पिताजी हमारा चला गया। तो हमको तो चला जाना ही पड़ेगा। बाकि प्रमत्ता ह।, पागल है, इसलिए देखते हुए भी देखता नहीं। :पश्यन्न अपि न पश्यति। तो ये सब ज्ञान होता है यदि महत सेवा, महात्मा को सेवा करें। जो महात्मा कौन है, भक्त है, सम्पूर्ण भगवान का भक्त है, फिर ये सब ज्ञान मिलता है हाँ। इसलिए शास्त्र में कहते हैं "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुम् एवभिगच्छेत्"। हाँ, वोई वास्तविक भगवद भक्त उसको गुरु मान करके उसको आश्रय ग्रहण करो, उसको आश्रय ग्रहण करने के लिए तुमको ज्ञान, वेद ज्ञान अच्छी तरह से जो है, वो तुमको मिलेगा। और जो यदि "योषितां संगी-संगम" जो विषय भोग करने का है, केवल रूपया-पैसा से मतलब है और इन्द्रिय तर्पण करने में, वो भी प्रमत्ता बताया है
- नूनं प्रमत्त: कुरुते विकर्म
- यद् इन्द्रिय-प्रीतया आप्रुणोति
ये जो कर्मी लोग है इतना परिश्रम करते हैं दिन भर, तो क्या कारण है, इद्रिया प्रीति और कुछ नहीं। इधर भी आजकल शुरू हो गया है। उधर तो बिकुल, वेस्टर्न कन्ट्रीज में केवल इन्द्रिय प्रीति और कुछ काम नहीं। इन्द्रिय तर्पण करने के लिए समर्थ भी नहीं है। बड़े-बड़े पेरिस में बड़े-बड़े क्लब है और बुड्ढे-बुड्ढे सब बड़े-बड़े बिजनेसमैन और पॉलिटिशंस केवल उधर जताए हैं शराब पीने के लिए और रंडीबाजी करने के लिए। ८० वर्ष, ७६ वर्ष के। वो पचास डॉलर टिकट है भीतर में केवल प्रवेश करने के लिए, फिर और खर्च करो, ये सब चलता है। हाँ, क्यों देखिये इन्द्रिय प्रीति, उसका कोई समर्थ नहीं है, बुड्ढा हो गया,आप इन्द्रिय तर्पण करने को भी समर्थ नहीं है, तब ही वो जाते हैं रात में, और कुछ काम नहीं है। हाँ, ये पागल हैं। इसलिए शास्त्र में बहुत दिन से पहले ही बोल दिया है "नूनं प्रमत्ते कुरुते विकर्म" ये जो पागल सब हैं सब समय पापाचरण करते हैं पागल हो करके। वो किस लिए करते हैं कोई अच्छा काम के लिए, इतना रूपया-पैसा कमाते हैं पागल। नहीं, इन्द्रिय प्रीतये। केवल इन्द्रिय प्रीति के लिए। इसलिए तो वोही ऋषबदेव बोलता है "न साधु मन्ये" ये कोई अच्छा काम नहीं है। केवल इन्द्रिय, पहले शुरू किया है। ये जो इन्द्रिय प्रीति का काम है ये तो सूअर का काम है। हाँ, सूअर भी करता है और कुत्ता भी करता है। मनुष्य भी ये करेगा? नहीं। मनुष्य का अर्थ है तपो दिव्यम, इन्द्रिय का संयम करे। ये मनुष्य का काम है। तभी मनुष्य है। और जो काम सूअर करता है, कुत्ता करता है वोई काम मैं भी करूँ, तो फिर इससे क्या फर्क पड़ेगा? ये मनुष्य जेवण का रेस्पन्सिबिलिटी, उत्तरदायित्व है। ये मनुष्य जीवन जो हमको मिला है इसलिए ब्रह्मचारी बनाया जाता है। ब्रह्मचारी गुरु के लिए "वसंता दांता" शांत दांता, मने इन्द्रिय कण्ट्रोल को सीखो। क्यूंकि ये जो इन्द्रिय तर्पण करने के लिए हम लोग फँस जाते हैं, जन्म-मरण में। हम चाहते हैं मैं इस प्रकार इन्द्रिय तर्पण करेगा, तो भगवान ऐसा शरीर दे देते हैं। ये कैसे हम लोग को बताये हैं। ये उच्चित नहीं है। उच्चित है साधु संघ करो। महत सेवा, महात्मा जो है भगवान का भक्त उनकी सेवा करो, इनका उपदेश लो वो जैसे कहते हैं, आचरण करते हैं जैसे गोस्वामी लोग "त्यक्त्वा तुर्णं अशेष-मंडल-पति-श्रेणिम सदा तुच्च-वत्" क्यों छोड़ दिया उसको, वो तो गोस्वामी थे, कहीं भी रहें, उसको तो भगवद भक्ति है ही है। परन्तु आदमी को जैसे चैतन्य महाप्रभु। चैतन्य महाप्रभु स्वय भगवान, लक्ष्मी पति, वो कोई भीक मांगने का यज्ञ नहीं है, तब भी सन्यास ले लिया लेकर के, उनका भी सब ये भागवत में है।
- त्यक्त्वा सु-दुस्त्यजा-सुरेपसिता-राज्य-लक्ष्मिम्
- धर्मिष्ठ आर्य-वचसा यद् अघाड़ अरण्यम
- माया-मृगम दयितयेप्सितं अनवधावद
- वन्दे महापुरुष ते चरणराविंदम्
(श्रीमद भागवतम ११ ५ ३४) हाँ, ये जो चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान, हाँ, लक्ष्मी-नारायण, वो भी चौब्बिस वर्ष उम्र में पत्नी का मौत, युवती पत्नी और स्नेहमयी माताजी और बड़ा इज़्ज़तदार ब्राह्मण तो थे ही, पंडित, निमाई पंडित, ये सब होते हुए भी, ये दुनिया जो मुर्ख है उसको कृपा काने के लिए सन्यास ले करके बहुत काम किया चैतन्य महाप्रभु, तो ये उच्चित है। ये सब के लिए समाज में ये चार वर्णाश्रम, आइडियल, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और आश्रम, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, इसका कारण है। परस्पर व्यवहार से ये सामाजिक जो विभाग है उसको प्रतिपालन करके परस्पर उपकार। जैसा हमारा शरीर में विभाजन है, मस्तक भी है, हाथ भी है,पेट भी है, और पैर भी है। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र परस्पर सहयोग करके शरीर अच्छी तरह से शुष्क रहे, ये काम है। ये वर्णाश्रम धर्म का उच्चित है। ये स्वधर्म है। स्वधर्म, ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्वकर्मणा तम अभ्यर्च, भगवान के सेवा करना, ब्राह्मण भी करे, क्षत्रिय भी करे, वैश्य भी करे, अपना-अपना भगवान जैसा बताये हैं, वैसे काम करें की भगवान संतोष हो जाएँ, फिर उनका जीवन सफल हो जायेगा। इसलिए "महत सेवा द्वारं" इसलिए महत्मा जो बताएं देखो जी तुम्हारा ब्राह्मण का गुण है, तुम इस तरह से भगवान की सेवा करो। देखो जी तुम्हारा क्षत्रिय का स्वभाव है, तुम ऐसी सेवा करो। देखो जी तुम्हारा वैश्य का स्वभाव है, गुण कर्म विभागशः। तो गुरु निर्देश कर देता है और समझ लेते हैं। और जो समझदार नहीं हैं, मामूली हैं वो सब को सेवा करो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये सब नियम। तो इसलिए महत सेवा। महात्मा का आश्रय लेना चाहिए यदि हम लोग मुक्ति को चाहता है। :"महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस" और जो केवल भोग करने के लिए जो दिनिया में हल्ला मचा रहे हैं, को साथ "तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम" तो फिर जा करके (वाटर)। फिर महात्मा कौन है, समझना चाहिए। इस तरह सब ही का परिचय होना चाहिए। शास्त्र में बताता है महात्मा वोही है जो की अनन्य भाव से भगवद भजन करता है। अनन्य भाव, वो माहत्मा है। तो "महानतः ते सम-चित्तः प्रशांता" ये सब महात्मा का गुण है। सम-चित्तः, की केवल हम इसको उपकार करेंगे। ये नहीं चाहिए, ये अछूत है। ये महात्मा नहीं है। वो सबको उपकार करेगा। सब को "परित्राणाय साधुनाम। सम-चित्तः उनको जो भाव है, सबके के लिए समान है। "सम सर्वेषु भूतेषु" भगवद-गीता में। ये नहीं है की आप केवल हिन्दू का उपकार करेंगे, मुस्लमान का करेंगे, की इंडियन का करेंगे, नहीं। भगवान का सब अंश हैं, जीव मात्र। जहाँ तक हो सके सब का उपकार करो। तो सम-चित्तः और प्रशांता। बड़ा शांत स्वभाव है की भौतिक जगत में वो एजीटेटेड नहीं होता है। सबको उपकार करने से प्रशांत हो जाता है। प्रशांत, प्रकृष्ट रूपेण शांत। शांत एक होता है और प्र लगाने से प्रकृष्ट रूपेण। वो बहुत अच्छी तरह से शांत होता है। वो कौन है? वो भी भागवत भक्त होता है। ये बहगवां जो बताये हैं की
- भोक्तारं यज्ञतपसां
- सर्वलोकमहेश्वरम् ।
- सुहृदं सर्वभूतानां
- ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
शांत कौन हो सकता है? जो तीन बात को समझता है। एक बात ये है जो भगवान भोक्ता है। भगवान भोक्ता है, जैसे ये मंदिर है। इसमें क्या बात है। मंदिर और बगल में एक मकान है। इसको क्यों मंदिर बोला जाता है और इसके बगल में मकान है उसको क्यों मकान बोला जाता है। क्या कारण है? कारण एहि है की इधर समझा जाता है की भोक्ता भगवान। इधर जो कुछ काम हो रहा है ये भोक्ता सामने बैठे हैं, राधा-कृष्णा, उनको सजाने के लिए, उनको सिंघासन बनाने के लिए, उनको पूजा करने के लिए, उनका आरती करने के लिए, उनके लिए, उनको समझाने के लिए किताब छपने के लिए, और वो किताब साधारण वितरण करने के लिए, उद्देश्य क्या है की भगवान भोक्ता है, इसको समझना है। और कुछ काम नहीं है।
कृष्णा कॉन्सियस्नेस्स का अर्थ क्या होता है? जो भगवान भोक्ता है। भगवान के लिए सब नौकरी करो, चाकरी करो, भगवान की सेवा करो, भगवान पर किताब लिखो, किताब वितरण करो, आदमी को समझाओ, पागल को, की भगवान ही मालिक है। तो जो अच्छी तरह से नहीं समझता है की भगवान मालिक है तो उसको शांति कैसे मिलेगा? "कुतो शांति अयुक्तस्य" जो अयुक्त है, जो भगवान से संपर्क नहीं है उसको शांति कैसे मिलेगी? असंभव, नहीं हो सकता है। "भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्" और भगवान सर्वलोक, सब लोक, अनंत लोक है। आपलोग रात में देखते हैं कितना सितारा है, कितना प्लेनेट है, ये सब एक-एक लोक है। चंद्र लोक है, सूर्य लोक है, ये मृत्यु लोक है, स्वर्ग लोक है, ये सब उसको लोक बोला जाता है। तो सर्वलोकमहेश्वरम्। ये जितने लोकक हैं इसका कोई तो मालिक होना चाहिए। मालिक कौन है, वो भगवान है। ये समझना चाहिए। और भोक्ता कौन है? वो योग्य कौन है? देखा है राज प्रासाद है, ये बड़ा आदमी का मकान है। उधर हज़ारों सर्वेंट रहता है। बाकि भोक्ता वो मालिक है। इसी प्रकार अनत कोटि जीव हैं। वो सब भगवान का नौकर हैं। "जीवेर स्वरुप होय नित्येर कृष्णदास"। ये जब समझ जायेगा, अनंत कोटि जीव है। राजा इंद्रा जैसे इंद्रा लोक का। वो इंद्रा से शुरू करके एक पोका, इन्सेक्ट होता है। उसका नाम है इंद्रगोप, कीड़ा। वो इंद्रा से शुरू करके ये इंद्रा।
- यस त्व इंद्रगोपम अथवेंद्रं अहो स्व-कर्म-
- बन्धानुरूप-फल-भाजनं आतनोति
ये जो छोटी सी जो कीड़ा है, ये इंद्रा से शुरू करके और जो इंद्रा लोक ला राजा है वो इंद्र तक सब जितने मूर्तियां हैं, सब अपना कर्म फल में लगा हुआ है, भोग में, अपना-अपना कर्म के अनुसार काम करते हैं। बाकि, 'कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्ति-भाजां"। अभी जो भक्त हो गया वो कर्म के आधीन नहीं है। वो स्वाधीन हो गया। वो स्वाधीन कर दिया। कैसे कर दिया? भगवान बोलता है "अहं त्वां सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि" हम तुमको मुक्त कर देंगे। तो फिर वो स्वाधीन हो जायेगा। भगवान का सेवा जो करते हैं वो पूर्ण स्वाधीन है, मुक्त है। मुक्ति का बात हो रहा है न? तो प्रशांत, साधु जो है वो प्रशांता। वो जानते हैं की भगवान मालिक है, भगवान भोक्ता है, भगवान सबका सुह्रद है, मंगलाकांक्षी। भगवान सबके मंगलाकांक्षी हैं तभी तो आते हैं दौड़-दौड़ के। हमलोग सब फंसे हुए हैं। हमलोग को ध्यान करने के लिए भगवान खुद आते हैं। तो भगवान को समझना चाहिए शांत , प्रशान्त्य विमन्यवः। विमन्यवः, बिलकुल द्वेष रहित, कोई प्रकार का राग, ग़ुस्सा, द्वेष, ये नहीं है। विमन्यवः सुहृदः, सब का मंगल चाहते हैं। सब का मंगल चाहते हैं, साधु जो है वो "पर दुक्ख दुःखी"। वो अपने के लिए दुखी नहीं है। उसको क्या दुःख है? जिसको भगवान को समझ में आया उसको क्या दुःख है? उसको कुछ दुःख नहीं है। बाकि उनका दुःख है जो भगवान को मानते नहीं,
- शोचे ततो विमुख-चेतसा इन्द्रियार्थ-
- माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढां
उनका एहि दुःख है की ये मुर्ख लोग माया सुख के लिए दो-दस वर्ष, पचास वर्ष, ज्यादा से ज्यादा सौ वर्ष, वो भी नहीं, वो सुख के लिए सब वर्जन करते हैं, भगवान को ची छोड़ देते हैं। "शोचे ततो विमुख-चेतसा" नित्य है, भगवान से समपर्क नित्य है, वो नित्य संपर्क छोड़ करके, दुनिया में दस-बीस-पचास वर्ष संपर्क जो है वो ही सोशिअलिस्म, थिस इस्म, नेशनलिस्म, ये शरीर से संपर्क। जहाँ ये शरीर छूट गया कहाँ समाज रहा, कहाँ नेशन रहा, कहाँ परिवार रहा, सब नष्ट हो गया। तो माया सुखाय, इसको कहते हैं माया सुखाय। माया सुख, मने ये जो सुख समझते हैं ये सुख नहीं है। माया, मायिया, ये सुख नहीं है। तो "माया-सुखाय भरम उद्वहतो। ये माया सुख के लिए बड़े-बड़े इंडस्ट्री करते हैं, बड़े-बड़े शहर करते हैं, बड़े-बड़े पॉलिटिशियन होते हैं, सब डिप्लोमेट होते हैं, सब लोग चाहते हैं की किस तरह से ऊँगली दिखा करके हम बड़ा हो जायेंगे, ये सब चलता है। "माया-सुखाय भरम उद्वहतो विमूढां"। ये विमूढा, ये सुख में क्या है। ये सुख तो दो दिन के लिए है। असल सुख तो है मैं आत्मा हूँ औअर हमारा परमात्मा से संपर्क है। वो संपर्क हमको बनाना चाहिए और उससे जो सुख मिलता है, वो सुख मिलने से "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:" और कुछ सुख मांगना ही नहीं। जैसे ध्रुव महाराज कह दिया भगवान को "महाराज हमको औअर कुछ चाहिए ही नहीं"। "नहीं क्यूंकि तुम इतना तपस्या किया और राज्य भोग करने के लिए, लेयो। वो बोलता है हमको ये सब जरूरत ही नहीं है। ये भागवत भक्ति है। भगवद भक्ति होने से फिर उसको सब शांत हो जाते हैं। वो बोलता है अब हमको कुछ नहीं चाहिए। तो ये है। इसको कहते है "विमन्यवः सुहृदः साधवो ये"। इस प्रकार जो महात्मा है उनका आश्रय ग्रहण करना चाहिए और उनका निर्देश अनुसार तपस्या करो। ये बात नहीं है सब छोड़-छाड़ के बिलकुल नंगे हो जाओ, नहीं। "निर्बन्धः कृष्ण-संबन्धे, युक्तम् वैराग्यम् उच्यते" सब भगवान का संपर्क से काम करो। अब देखिये यहाँ मंदिर है। ये भगवान को सजाने के लिए इसमें पैसा तो जरूरत है। ये मकान में जो हमलोग बैठे हैं, इसका भाड़ा के लिए पैसे का जरूरत है। फिर भगवान को भोग लगाने के लिए पैसे का जरूरत है। तो पैसे का तो जरूरत है बाकि "निर्बन्धः कृष्ण-संबन्धे, भगवान का संपर्क से इसको खर्च करो। हाँ, वो शराब पीने के लिए, मांस खाने के लिए, रंडीबाजी करने के लिए खर्च न करो, तब तुम्हारा जीवन सफल हो जायेगा।
ये सभी कर सकते हैं मंदिर में जैसे हमलोग करते हैं। जैसे हमारा हिन्दू धर्म का नियम था की सभी के घर में भगवान का मूर्ति प्रतिष्ठित है, और भगवान के लिए रसोई बनायीं जाती थी, और उसको भोग लगाया जाता था और सब लोग प्रसाद पाते थे, भगवान का कीर्तन श्याम को करना, और भगवान का उत्सव करना, और ये भगवान का विषय अगर सिर में एक दफा घुस गया तो चाहे बिज़नेस करे या कोई भी काम करे तो भगवान के लिए ही हुआ।
- यत्करोषि यदश्नासि
- यज्जुहोषि ददासि यत् ।
- यत्तपस्यसि कौन्तेय
- तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ २७ ॥
तो साधु हो गया। साधु होने में कोई मुश्किल है क्या? जो काम इधर होता है हमलोग सीखते हैं और सिखाते हैं। जैसे घर-घर में होना चाहिए। जैसे आपलोग कृपा करके इधर आते हैं, इधर आने का समय नहीं है तो घर में बैठिये, भगवान की मूर्ति रखिये, आरती कीजिये और गीता पाठ कीजिये, और अपना घर का मेमबर जो है सब बैठ के कीर्तन कीजिये। कुछ सिनेमा में जाने नहीं होगा और खर्च नहीं करने पड़ेगा। ये इसका जो ये मूवमेंट, ये जो आंदोलन है, इसका नाम है कृष्णा कॉन्शियसनेस्स मूवमेंट। सब समय कृष्ण चिंतन करो।
- सततं किर्तयन्तो माम्
- यतन्तश्च च दृढ़-व्रतः
ये भगवान बताते हैं। सब समय हमारा विषय आलोचना करो, चर्चा करो, कीर्तन करो और हमको नमस्कार करो, पूजा करो, क्या मुश्किल है? बाकि ये करने से वही होगा की "महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस"। मुक्त हो जायेंगे। और इसको छोड़ दिया और केवल इन्द्रिय तर्पण में लग गया तो ये उच्चित नहीं है।
- न साधु मन्ये यत आत्मनो अयम्
- असन्न अपि क्लेशदा आस देहः
जब तक ये भौतिक शरीर मिलेगा, तब तक हमलोग को क्लेश उठाने पड़ेगा। जरूर, भौतिक शरीर भी रहे और मैं सुखी हो जाये, ये असंभव है। ये नहीं हो सकता है। ये दुर्बुद्धि है। "दुराशया ये बहिर-अर्थ-मणिनः"। वो जो दुनिया जो चल रहा है, ये शरीर का सुख होने से ही हमारा सुख हो जायेगा। ये बिलकुल गलत बात है। नहीं, आत्मा का सुख होना चाहिए। आत्मा तभी सुखी होगा जब भगवद भजन करेगा। ये कृष्णा कॉन्शियसनेस्स मूवमेंट आपलोग इसको अच्छी तरह से समझिये, और इसको कार्यक्रम में ले आइये। सब जीवन सुखी हो जायेगा। थैंक यू वैरी मच।
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