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760113 - Lecture SB 05.05.02 Hindi - Calcutta

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



760113SB-CALCUTTA - January 13, 1976 - 33:47 Minutes



Prabhupāda:

mahat-sevāṁ dvāram āhur vimuktes
tamo-dvāraṁ yoṣitāṁ saṅgi-saṅgam
mahāntas te sama-cittāḥ praśāntā
vimanyavaḥ suhṛdaḥ sādhavo ye
(SB 5.5.2)

(Hindi)

HINDI TRANSCRIPTION


महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस
तमो-द्वारं योशिताम् संगी-संगम
महन्तस ते सम-चित्तः प्रशांता
विमान्यवः सुहृदः साधवो ये

कल हमलोग ऋषबदेव, सम्राट ऋषबदेव के उपदेश के विषय का आलोचना कर रहे थे। तो ऋषबदेव का जो उपदेश उनका पुत्र का ऊपर, वोही उपदेश। ऋषबदेव कहते हैं की जो ये मनुष्य जीवन है केवल कुत्ता भेड़ी जैसे परिश्रम करना दो रोटी खाने के लिए, ये मनुष्य जीवन नहीं है। ये जो आजकल सिखाया जाता है की खूब परिश्रम करो; नाउ इस दी टाइम फॉर हार्ड लेबर। आई ह्वे सीन सो मेनी सैंबोर्ड्स हियर इन इंडिया। तो ये जो उपदेश है की केवल खूब परिश्रम करो। तो शास्त्र में कहते हैं की ऐसे परिश्रम तो सूअर भी करता है। की सूअर के जैसे परिश्रम करने के लिए मनुष्य जीवन का काम है क्या। नहीं, हाँ, वास्तविक में हमलोग परिश्रम करने को नहीं चाहते हैं। इन मार्शल इकोनॉमिक्स वी रेड इन चाइल्डहुड कोई परिश्रम करने को नहीं चाहता है। उसको जो फैमिली अफेक्शन है इसलिए वो परिश्रम करता है। और वास्तविक हमलोग देख रहे हैं अनेक व्यक्ति जब परिश्रम करके जब पैसा-रूपया जम जाता है तो फिर वो परिश्रम नहीं करता है। वो कहीं निश्चिंत बैठने को चाहता है शांति से। तो परिश्रम करना विशेष करके मनुष्य के लिए और पेट भरने के लिए ये उच्चित नहीं है। हाँ, परिश्रम कारण किस लिए चाहिए, इसलिए बताया है तपस्या। तपस्या भी परिश्रम है। हाँ, तो तपस्या किस लिए तपो दिव्यम, भगवान को प्राप्त करने के लिए। उसके लिए परिश्रम करना।ये वैदिक सभ्यता है। बचपन से सिखाया जाता है की तपस्या करो, ब्रह्मचारी तपस्या करो। हाँ, वो ही जीवन है। तपस्या करके फिर किस तरह से गृहस्त बनने होता है उसको सीखो और गृहस्त होकरके भी कुछ दिन बाद, फैमिली लाइफ, गृहस्त जीवन छोड़ करके वानप्रस्थ लो, फिर सन्यास लो। ये ब्रह्मचारी, गृहस्ता, वानप्रस्थ, सन्यास, ये पद्दति है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यही से जीवन शुरू होती है।

वर्णाश्रमाचार-वता
पुरुषेण परः पुमान
विष्णुर आराध्यते पन्था
नान्यत् तत्-तोषा-कारणम्

ये शास्त्र का उपदेश है क्यूंकि जीवन का जो गोल है, उद्देश है ये मनुष्य जीवन है ये हमलोग भगवान का सब अंश हैं, पुत्र हैं, और भगवान को भूलकरके ये भौतिक जगत में फँस गए हैं। और उसी के लिए जो हम इतना परिश्रम कर रहें हैं ये उच्चित नहीं है। फिर भगवान के पास लौट जाना, भगवान के साथ रहना। जैसा कोई व्यक्ति घर से बहुत दिन छोड़ दिया और प्रदेश में चाहे जितना उसको सुख में रखा जाये, उसको शांति नहीं मिलती है। जब फिर घर में लौट जाये, फिर फैमिली से पिता से, माता से, पुत्र से, मिल जाये, वो जीवन ठीक है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यही से जीवन शुरू होती है।

वर्णाश्रमाचार-वता
पुरुषेण परः पुमान
विष्णुर आराध्यते पन्था
नान्यत् तत्-तोषा-कारणम्

ये शास्त्र का उपदेश है क्यूंकि जीवन का जो गोल है, उद्देश है किसलिये मनुष्य जीवन है ये हमलोग भगवान का सब अंश हैं, पुत्र हैं, और भगवान को भूलकरके ये भौतिक जगत में फँस गए हैं। और उसी के लिए जो हम इतना परिश्रम कर रहें हैं, ये उच्चित नहीं है। फिर भगवान के पास लौट जाना, भगवान के साथ रहना। जैसा कोई व्यक्ति घर से बहुत दिन छोड़ दिया और परदेश में चाहे जितना उसको सुख में रखा जाये, उसको शांति नहीं मिलती है। जब फिर घर में लौट जाये, फिर फैमिली से पिता से, माता से, पुत्र से, मिल जाये, वो जीवन ठीक है। ये मनुष्य जीवन भी यही है। भगवान को भूलकरके हमलोग भौतिक जगत में आये हैं :कृष्ण भुलिया जीव भोग वांचा करे पाषते माया तारे झापटिया धरे" झापटिया। जब हम कृष्णा को भूल जाते हैं और ये भौतिक जगत में भोग करने के लिए प्रयत्न करते हैं, वो जो भोग की इच्छा है, वो ही माया है। इसके लिए एक बंगाली वैष्णव कवी कहते हैं 'कृष्ण भुलिया जीव भोग वांचा करे' कृष्णा को भूल जाते हैं और ये भौतिक जगत में इन्द्रिय तर्पण करने के लिए जो प्रयत्न करते हैं उसी का नाम है माया। माया आप लोग सब सुने हैं। माया क्या चीज़ है? ये भगवान को भूल जाना और ये भौतिक जगत में इन्द्रिय तर्पण करना। शास्त्र में ऐसी बताया है नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म, ये ही ऋषबदेव का है अभी आएगा आगे जाके। कहते हैं जो ये सब भौतिक जगत में आये हैं चाहे मनुष्य हो या जानवर हो, कोई भी हो, उसको काम क्या है? प्रमत्तः पागल हो गया है। किसलिए पागल हो गया, इन्द्रिय तर्पण करने के लिए। नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म, अब उस के लिए सब तरह के पाप कर्म वो करते हैं। तो पशु के लिए उनका पाप-पुण्य कर्मा है नहीं। एक-एक पशु के लिए एक-एक कर्मा माया द्वारा निर्धारित है। वो ऐसा ही काम करता है। जैसे सूअर है। उसके लिए पर्क्रति से निर्धारित है तो वो गो खाता है। वो रसगुल्ला नहीं चाहता। वो गो ही खायेगा। उसके लिए कोई नियम है। बाकि जो मनुष्य समाज में है उसको बुद्धि ज़्यादा है। वो रसगुल्ला भी खायेगा और गो भी खायेगा। ये मनुष्य जीवन का सभ्यता है। हाँ, वो समझता नहीं की भाई गो सूअर के लिए है औअर रसगुल्ला हमारे लिए है। हम गो क्यों खाएं? ये बुद्धि ब्रष्ट हो जाता है। हमारे लिए भगवान फल-फूल, दूध, और दूध से हज़ारों द्रव्य हम बना सकते हैं और और दूध से घी उससे लुची-पूरी कचौरी, इतना अच्छा-अच्छा चीज़े। हम मसहरी क्यों खाएं? ये तो कुत्ता के लिए है, शेर के लिए है। हमलोग कुत्ता शेर हैं क्या?

हम तो मनुष्य हैं। हाँ, मनुष्य जीवन में प्रकृति, भगवान जैसे नियम बता देते हैं, उस समय उस प्रकार वो नहीं चलता है। इसलिए उसका दुःख है। भगवान कहते हैं "पत्रं पुष्पम फलम तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छाति"। हाँ, ये मनुष्य जीवन है। ये जो भगवान हैं, भगवान ये जो कृपा करके सिंहासन में बैठे हैं, ऐसे नहीं समझना चाहिए ये पत्थर है। नहीं, भगवान कृपा करके आये हैं हमारी सेवा लेने के लिए। क्यूंकि अगर हम भगवान के विषय "अनोर अनियाँ महतो महियाँ" भगवान आकाश में हैं तो हम भगवान को पकडेंग कैसे। मैं तो छोटा। इसलिए भगवान कृपा करके जिस फॉर्म में, जिस तरह से हमलोग भगवान का सेवा कर सके; हम भगवान को कपड़ा पहनाएं, भगवान को फूल से सजाएँ, भगवान को भोग भी लगाएं, तो ये भगवान स्वीकार करते हैं। इसलिए भागवन कहते हैं "पत्रं पुष्पम फलम तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छाति"। इसलिए भक्ति से भगवान का सेवा करने के लिए, ये हमको एक ओप्पोरचुनिटी, सुयोग दे रहे हैं। ऐसा नहीं है की जैसा ये मुर्ख लोग समझते हैं क्यों जाते हैं मंदिर में, पत्थर को पूजा करते हैं। कोई-कोई ये भी लिखता है 'पत्थर पूज के हरी मिले पूजे पहाड़'। ये सब नहीं। भगवान पत्थर नहीं हैं। भगवान ओम्नीपोटेंट हैं। पर मैं अभी पत्थर, लकड़ी छोडकरके और कुछ देख नहीं सकता है, इसीलिए भगवान पत्थर रूप से ही आते हैं। हाँ, क्यूंकि तुम्हारी इतनी शक्ति है नहीं की और कुछ देख सको जैसे सच्चिदानंद विग्रह ,भगवान सच्चिदानंद विग्रह सुना ही है बाकि हमलोग उसको वास्तविक इन्द्रिय से उसको परख नहीं सकते। हाँ, तो भगवान तो सच्चिदानंद विग्रह है। और ये जो विग्रह है जिसको हमलोग पत्थर कहते हैं, वो भी सच्चिदानंद विग्रह है। हाँ केवल हमारा दर्शन का भेद है।

हाँ, इसलिए जब चैतन्य महाप्रभु जब जग्गनाथ जी के मंदिर में गए, देखके ही उनका मूर्छित अवस्था हो गया। हाँ, कोई कहते हैं की देखो जी ये लकड़ी का मूर्ति है, इसको देखकरके क्यों ये बेवक़ूफ़ पद गया, गिर गया। तो दखने का फर्क है। जैसे भक्ति आगे बढ़ेगा, उस प्रकार दर्शन होता है। "भक्त्या माम् अभिजानाति", और अभक्त जो है, बो भगवान को क्या दर्शन कर सकता है। वो दर्शन नहीं कर सकता है। "भक्त्या माम् अभिजानाति", जिसके पास भक्ति नहीं है वो भगवान को देखेगा क्या? और जिसमे भक्ति है बो सब समय भगवान को देखेगा। :प्रेमाञ्जन-च्छुरिता-भक्ति-विलोचनेन

सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति

जो संत है, जिसको भगवान में प्रेम है, वो भगवान को सब समय ह्रदय में दर्शन करता है। हाँ, और वो सबसे बड़ा योगी है। भगवान खुद कहते हैं

योगिनाम अपि सर्वेषाम्
मद्-गतेनन्तर-आत्मना
श्रद्धावान भजते यो माम्
सा मे युक्त-तमो मतः

वो सबसे बड़े योगी हैं। इसलिए बहगवां आते हैं। तो अगर भगवान के दो चार बार रोज़ हम दर्शन करेंगे ये जो भगवान की मूर्ति है ये सब समय हमारे ह्रदय में जागृत रहेगा। इसलिए मंदिर में आना चाहिए। कनिष्ट अधिकारी जो हैं, जो ज़्यादा आगे बढे हुए नहीं हैं, उसके लिए मंदिर आना बहुत जरूरी है, अनिवार्य है। उसको देखना ही पड़ेगा। ये नियम है

श्रवणं कीर्तनं विष्णुः
स्मरणं पाद-सेवनम्
अर्चनं वंदनं दास्यम्
सख्यम् आत्म-निवेदनम्

ये सब शास्त्र में विधि है। जैसे आपलोग यहाँ आते हैं , भगवान की मूर्ति देखते हैं, और कुछ सेवा भी करते है, फल ले आते हैं, पुष्प,ले आते हैं, को झांझ बजाते हैं, कोई करतल बजाते हैं, कोई बालक माता पिता देख करके वह नमस्कार करते हैं। ये सब हिसाब लिखा जाता है। सब हिसाब, शास्त्र में है सब। कुछ नहीं समझे. केवल इधर आकार के भगवान की जो कथा है अगर सुने तो "पुण्य श्रवण कीर्तना"। हाँ, "श्रणवताम स्व कथा कृष्णा पुण्य श्रवण कीर्तना" भगवान की महिमा श्रवण कीर्तन इससे पुण्यवान हो जायेगा। अब समझने वाला की सुनकर के केवल हरे कृष्ण मंत्र सुन कर के आप सब पुण्यवान हो जायेंगे। और बिना पुण्यवान हुए भगवान का दर्शन नहीं हो सकते है।

येषां त्वन्तगतं पापं
जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता
:भजन्ते मां दृढव्रता: ॥ २८ ॥

ये सब भक्ति जो है ये सब पुण्य का काम है। पुण्य से भी ज़्यादा अव्यभिचारिणी भक्ति जो है वो ब्रह्म प्लेटफार्म का है।

मां च योऽव्यभिचारेण
भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणां सामतीत्यैतां
ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥

हाँ, ये सब भक्ति यजन करने के लिए जो कार्यक्रम है उसका नाम है तपस्या। हाँ, "तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं" की जो सत्त्व है उसको शुद्ध करने को चाहते है। जैसे मलेरिया फीवर है और वो फीवर से अगर मुक्ति चाहते हो तो असल में मुक्ति का अर्थ एहि होता है जो अर्टिफिशली हम एक चीज़ को पैदा कर लिया है और फिर उसको दवाई देकर के फीवर को हटाना चाहिए। वो हटाने से जब फीवर नहीं है जैसे डॉक्टर बोलते हैं अब तुम्हारा फीवर से मुक्ति हो गयी। हाँ, इसी प्रकार ये जो हमारा फीवर है की ये दुनिया को मैं भोग करूंगा या त्याग करूंगा। इधर दो व्यक्ति है। एक व्यक्ति मने क्लास ऑफ़ मेन, वो तो भोग करने में बहुत व्यस्त है, किस तरह से हम दुनिया को भोग करे; उसका नाम है कर्मी। और एक व्यक्ति है जब वो भोग करते-करते-करते थक जाता है की इसमें कुछ माल मिला नहीं तब वो ज्ञानी हो जाते हैं, कहते हैं 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या'। ये मिथ्या चीज़ है की 'ग्रेपस अरे सोर'। हाँ, बहुत सीखता है भोग-त्याग में भगवान नहीं मिलेगा। भोग में भी नहीं मिलेगा और त्याग में भी नहीं मिलेगा। इसलिए भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य" हमलोग जितना धर्म बनाये हैं कुछ धर्म तो भोग का है। खूब यज्ञ करो और स्वर्गलोक में जायेंगे, खूब परिश्रम करो बिज़नेस बढ़ेगा, रूपया मिलेगा, ये सब भोग। और एक धर्म बनाते हैं त्याग, जो 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या'। जगत मिथ्या, इसके लिए क्यों इतना परिश्रम करें। हाँ, ब्रह्म हो जायेंगे, भगवान से एक हो जायेंगे। ये सब चीज़, भगवान से नहीं, ब्रह्म से, ये आप लोग सब जानते हैं और जो भी होते हैं और सिद्धि चाहते हैं, तो इसमें भगवान नहीं मिलेगा। भगवान तो मिलेगा एकमात्र "भक्त्या माम अभिजानाति यावां यश चास्मि तत्वतः भगवान क्या चीज़ हैं और भगवान से हमारा क्या संपर्क है, और वो संपर्क का अनुसार हमको क्या करना चाहि। और आखरी में हमारा जीवन का उद्देश्य क्या है और वो कैसे मिलेगा? ये सब वस्तु जो है ये सब भक्ति से ही मिलेगा हमको।

इसलिए ऋषबदेव कहते हैं "तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं" मेरे पुत्रगण तपस्या करो जिसमे तुम्हारा सत्ता शुद्ध हो जायेगा। फिर तुमको ये जन्म-मरण से छुट्टी मिल जायेगा। ये धर्म। हमलोग समझते भी नहीं, जानते भी नहीं की ये जन्म-मरण को बन्द करना है इसमें ही हमको सुख मिलेगा। वो जानते ही नहीं। वो समझते हैं की जन्म-मरण बंद नहीं हो सकता है। हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता है। जब तुम इटरनल है "न हन्यते हन्यमाने शरीरे" फिर हमको जन्म लेना है, मरना है, इस झमेले में क्यों फस जाये, ये सब प्रश्न होना चाहिए। ये मनुष्य जीवन का है। तो वो सब में वो ध्यान नहीं देता है। वो तात्कालिक जो सुख-दुःख है उसके लिए वो व्यस्त है। उसके लिए तो कुत्ता भेड़ी भी रहता है, मनुष्य जीवन क्यों मिला है। मनुष्य जीवन वो आखरी जो प्रोबलएम है उसको मिटाना चाहिए। इसलिए कहते हैं की ये जो केवल परिश्रम करते हैं ये उचित नहीं है। "नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते"। तो कितना तकलीफ करके, तकलीफ करके होगा क्या? तकलीफ करने से तुम अपना जीवन शुद्ध कर लोगे?, नहीं। हाँ, तपस्या करना होगा। सब तो तकलीफ करते हैं। ये सभी कोई एक ही आश्रम में ….. हो जाते हैं, नहीं। जिसको जितना मिलना है वो मिलेगा। ये प्रकृति से नियम है:" प्रकृतेः क्रियमाणानि" ज़्यादा परिश्रम करने से ज़्यादा मिलेगा ही नहीं। ये बुद्धिमान लोग समझते हैं। इसलिए परिश्रम उस तरह से करना चाहिए की किस तरह से भगवान से हमारा संपर्क हो जाये। भगवान को ये जो हम भूल गया है इसमें हमको ये तकलीफ उठना पड़ता है। "जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुःख दोष न दर्शनम" ये जन्म मृत्यु जरा व्याधि मिटाने के लिए हमको भगवान में संपर्क करना है। इसलिए भगवान कहते हैं "जन्म कर्म च में दिव्यं जो जानाति" यही दिव्यं बोला है। तपो दिव्यं। जैसे भगवद-गीता में बताया है, तो ऋषबदेव भी वोही बताते हैं, तपो दिव्यं। हाँ, भगवान का जन्म क्यों होता है, दिव्यं, डिवाइन, ट्रान्सेंडैंटल। सो इसको जो समझता है "जन्म कर्म च में दिव्यं जो जानाति तत्त्वतः"। वो वास्तविक क्या चीज़ है? भगवन क्यों आते हैं? भगवान क्यों हम लोग को भगवद-गीता का शिक्षा देते हैं? और फिर गीता छोड़ जाते हैं। और फिर उनका जो भक्त है, उनको सुपूत कर देते हैं की उनको सब समझाओ, ये मुर्ख लोब को सब समझाओ। "य इदं परमं गुह्यं मद्भ‍क्तेष्वभिधास्यति", "न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:", ये भगवान छोड़ जाते हैं। जो व्यक्ति ये जो गुह्य ज्ञान है भगवद-गीता की इसको जो जसमझायेंगे उससे बढ़करके हमारा कोई भक्त प्रिय है नहीं। ये भगवान कहते हैं। तो ऐसी चीज़ है भगवद-गीता, इसको लेकर के अंट-शंट बकना, ब्रम में डाल देना, ये उच्चित नहीं है। भगवान का भकत जो है वो ऐसे नहीं करते हैं।

भगवान का भक्त जो भगवद-गीता में बताये हैं वैसे ही बताते हैं। भगवान बताते हैं "मन मना मद भक्तो मद याजी मां नमस्कुरु" जो वास्तविक भगवद-गीता सुनाने वाला है वो अदल-बदल नहीं करेंगे। वो सबको बोलेंगे की देखो जी कृष्ण भगवान हैं और उनको सब समय चिंतन करो, और उनको पूजा करो, और उनको नमस्कार करो, और उनको सब समय भक्त बनके रहो। ये गुरु है, ये जो सिखाता है। और कुछ सिखाता है भगवद-गीता हाथ में लेकर के, तो क्यों आदमी को भ्र्म में डालता है, ये उचित नहीं है। इसलिए भगवान कहते हैं जो भक्त हमारा भगवद-गीता ठीक-ठीक समझाते हैं, समझाना मने ठीक-ठीक समझाना, बेठीक समझाना नहीं है। "या इमां परमम् गुह्यं" "परमम् गुह्यं", ये बहुत ही गुह्य है, कॉन्फिडेंशियल, ये साधारण आदमी नहीं समझ सकता है। है तो सब कोई समझ सकता है बाकि वो अंट-शंट बक करके उसको ख़राब कर देता है। इसलिए बोलते हैं "परमम् गुह्यं"। परम गुह्यं एहि है "सर्व धर्मान परित्यज्य मां एकम शरणं व्रज" ये सबसे गुह्यं उसको है। फिर बोलते हैं ये जो तपस्या है, वो तपस्या कैसे शुरू। तपो दिव्यम पहले श्लोक में बताया है तपो दिव्यम। तो तपस्या शुरू कैसे होती है। तब महत सेवा। जो महात्मा है उसको सेवा, यहाँ से तपस्या शुरू होती है। "महत सेवा द्वाराम विमुक्ते" ये जो महत सेवा है, महत, महात्मा कौन है? हाँ, आजकल तो महात्मा बहुत हो गए हैं, वास्तविक महात्मा कौन है? वो भी भगवान बता दिया "महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:भजन्त्यनन्यमनसो" ये महात्मा है। बेस्ट। जो भगवद भजन नहीं करता है, सब बुरा आदत, वो महात्मा नहीं है। इस प्रकार के महात्मा के पास फँस जायेंगे, तो काम नहीं बनेगा। ये महात्मा चाहिए। कौन? “महात्मनस तु माम पार्थ दैवीं प्रकृतिं आश्रितः” दैवी प्रकृति का आश्रय लिया है। हाँ, वो महात्मा है। दो प्रकृति है; अपरा प्रकृति, परा प्रकृति। आपलोग सब जानते हैं भगवद-गीता में बताया है :"अपरेयम इतस त्व अन्यम्प्र कृतिं विद्धि मे पराम"। ये जो भौतिक जगत हैं "भुमिर आपो 'नलो वायु ख़म मनो बुद्धिर", ये अपरा प्रकृति है, "अपरायम इतस तू विद्धि प्रकृति में पराम"। और एक प्रकृति है, तो कौन है? जीव भूतः यायेदं धार्यते जगत, ये सब आप लोग सुने है। जीव, जीवात्मा। ये प्रकृति का शरीर धारण करके अपरा प्रकृति को चला रहा है। ये सब जीव है और आप जीव है, भुमिर आपो 'नलो वायु, भौतिक चीज़ से बने हुए है। तो इसको चला रहा है कौन? हम चला रहा है। क्यूंकि हम ये शरीर का भीतर है ये शरीर चल-फिर रहा है। तो जब हम इसको छोड़ देंगे तो क्या है, कुछ नहीं मट्टी है, काम ख़तम। दो प्रकृति; एक प्रकृति जो इसका शरीर "भुमिर आपो 'नलो वायु" "तेजो-वारि-मृद्-विनीमयम्", ये शरीर जो है भौतिक शरीर है और इसको जो चला रहा है इतना भी ज्ञान नहीं है ये जो शरीर है अभी बड़ा सजा शर्ट, कोट, पैंट पहन करके चलता है बहुत जल्दी-जल्दी, उसको चलता कौन?

ये हैट, कोट, पैंट, चलता है क्या? और वोही हैट,कोट, पैंट जब वो जीवात्मा छोड़ देता है तो कोट, पैंट तो है फिर भी बोलता है की हमारा पिताजी चला गया। कहाँ चला गया, वो हैट, कोट, पैंट तो है, फिर तुम क्यों रोते हो? वो देखा ही नहीं कभी कौन उसका पिता है। इतना ज्ञान। ये सब ज्ञान लाभ करना चाहिए। पश्यति ज्ञान चक्षुषा स्वय भगवान बता रहे हैं और ऋषबदेव भगवान का अवतार है। वो भी बता रहे हैं, भगवान स्वय बता रहे हैं। कृष्णा कभी नहीं बताये की ये शरीर तुम है। हाँ, जो शरीर समझता है की वो शरीर है, वो गधा है। वो कोई आदमी है क्या? वो क्या समझेगा पारमार्थिक वास्तु। इसलिए भगवान पहले शिक्षण दे रहे हैं "देहिनो अस्मिन यथा देहे" ये नहीं समझो की ये देह तुम है। उसके भीतर तुम है। "देहिनो अस्मिन यथा देहे कौमारं यौवनं ज़रा"। इसलिए कहते हैं ये सब ज्ञान कहाँ से मिलेगा। जब महत सेवा करोगे। "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुम् एवभिगच्छेत्" ऐसे ही वो यदि वास्तविक आध्यात्मिक ज्ञान लाभ करना चाहते हो तो "तद्-विज्ञानार्थं" वो विज्ञानं को समझने के लिए "स गुरुम् एवभिगच्छेत्" गुरु के पास जाना चाहिए। हाँ, और गुरु कौन है

साक्षाद्-धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर
उक्तस तथा भावयत एव सद्भिः
किन्तु प्रभोर यः प्रिया एव तस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविंदम्

ये गुरु है। वो गुरु का काम क्या है। गुरु शिष्यों को भगवान के ऐसे पूजा करते हैं, ये उचित है। "साक्षाद्-धरित्वेन समस्त-शास्त्रैर" सब शास्त्र का एक विधान है की गुरु भगवान, सेव्य भगवान है, और गुरु सेवक भगवान है। हाँ, भगवान का एक मूर्ति है ,भगवान ह्रदय में बैठे हुए हैं और भगवान का कृपा से आगे बढे हुए हैं और उसको गुरु रूप से भेज देता है कृपा करके। ये सब चैतन्य चरितामृता में वर्णन है। बाकि जो भगवान का रिप्रेजेन्टेटिव गुरु है, वो क्या कोई अपने को भगवान समझता है। नहीं। वो सब समय अपने को भगवान का दास समझता है, वो गुरु है। और क्योंकि शास्त्र में गुरु को भगवान जैसे पूजा करो, वो कहेगा हाँ-हाँ पहले तो कृष्णा था वो मर गया। वो गुरु है क्या? ये गधा है, समझता ही नहीं है। ये गुरु नहीं, इसलिए कहते हैं महत सेवा। हाँ, महत सेवा, महत का अर्थ महात्मा। महात्मा कोई टाइटल नहीं है की किसी को दे दिया और हो गया। "महात्मनस तु माम पार्थ दैवीं प्रकृतिं आश्रितः" स्पिरिचुअल, जो स्पिरिचुअल प्रकृति है, दो प्रकृति है अपरा और परा। वो परा प्रकृति का जो अधीनता स्वीकार किया है औअर जो अपरा प्रकृति है और इसका जो अधीनता स्वीकार किया है, वो गुरु नहीं हो सकता है।

तो परा प्रकृति। भगवान का दो प्रकृति है परा एंड अपरा। जैसे भगवान कृष्ण हैं उनका दो प्रकृति है, दो नहीं एक ही है। प्रकृति एक ही है, दो नहीं है। तो जैसे गोवेंमेंट का दोई डिपार्मेंट है, यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट है और पुलिस डिपार्टमेंट है। तो पुलिस डिपार्टमेंट है चोर-बदमाश को शाषन करने के लिए और यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट है जो अच्छा आदमी है उसको एजुकेशन देना, उसको अच्छा सर्विस देना, उसको हाई कोर्ट जज बनाना, ये सब के लिए है। तो जो सब बुद्धिमान है वो यूनिवर्सिटी का सहारा लेते हैं और जो चोर-बदमाश है वो पुलिस तो सहारे में आते हैं। हाँ, बाकि भगवान का दोई डिपार्टमेंट है, अपरा प्रकृति और परा प्रकृति। तो महात्मा कौन है? ज चोर डिपार्मेंट का पुलिस है उसका आश्रय नहीं लेते हैं। वो तो चोर का डिपार्मेंट है। हाँ, वो प्रकृति का आश्रय लेते हैं की राधा-रानी की, जय राधे वृन्दावन राधा रानी का आश्रय लेते हैं। और जो चोर-बदमाश हैं, असुर हैं, राक्षस हैं, वो ये भौतिक देव-देवी का आश्रय लेते हैं। वो समझते हैं की दुर्गा मई का आश्रय लें और उनसे खूब मांगे धनं देहि, रूपम देहि, यशो देहि, वरदान देहि, देहि, और तो दुर्गा देवी देते हैं, ले खूब ले। हाँ, फिर असुर बन जाता है। ये भगवान क्या है, नहीं मानते हैं। तब तो दुर्गा देवी त्रिशूल लेती हैं भगवान को नहीं मानते हो, बस छाती में। "संसार-विसानले दिवा-निसि हिया ज्वले" जो भगवान का आश्रय नहीं लेगा, तो उसका दुर्गा देवी खूब शाषण करेगा। क्यूंकि वो तो भगवान की ही प्रकृति है।

दैवी ह्य एषा गुणमयी
मम माया दुरत्यया
माम् एव ये प्रपद्यन्ते
मायाम एताम् तरन्ति ते

पुलिस तब तक शाषन करेगा जब तक तुम शाषन को नहीं मानते। अगर कानून को मानने शुरू किया तो पुलिस से तुम्हारा क्या संपर्क। इसी प्रकार दुर्गा देवी जो प्रकृति है, जो भक्त बन जाता है उसको छूता भी नहीं है। और जो असुर है, भगवान को मानता नहीं उसके लिए तो त्रिशूल है। हाँ, त्रिशूल का अर्थ क्या है, त्रिताप। आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक, सब समय। इसलिए महात्मा जो है, जो दैवी प्रकृति का आश्रय लिया है, वो उनको पास जाना चाहिए, महत सेवा। "महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस"। ये जो परिस्थिति में तुम गिर गया है सब समय जन्म मृत्यु में फंसे हुए हैं, एक जीवन के बाद और एक जीवन, और एक जीवन, वो ही बस। जैसे सूअर भेड़ी दिन भर परिश्रम करते हैं और हम भी परिश्रम करते हैं। काम एक ही है चाहे हाई कोर्ट का जज हो या कोई और काम एक ही है। दिन भर परिश्रम करो रोटी के लिए। ये पहले ही बताया है की ये उच्चित नहीं है। उसके लिए तपस्या करनी चाहिए। तपस्या तो रोटी के लिए भी तपस्या करना पड़ता है, कितना एजुकेशन लेना पड़ता है, कितना एग्जामिनेशन पास करता पड़ता है, फिर वो एप्लीकेशन ले करके ये ऑफिस में, वो अफसर में जाओ। तक़दीर अच्छा होता है तो मिल जाता है नहीं तो वो भी भूका मर जायेगा। वो भी तपस्या है।हाँ, बाकि वो तपस्या करके लाभ क्या होगा।

ऐसी तपस्या करो की तुम्हारा सत्ता शुद्ध हो जाये, फिर जन्म-मृत्यु से तुम्हारा छुट्टी हो जायेगा। इसका नाम है तपस्या। "तपो दिव्यं पुत्रका येन शुध्दयेद सत्ता"। तो वो कसिए लाभ होगी। नेक्स्ट वर्स में ऋषबदेव बताते हैं की "महत्-सेवाम् द्वारम् आहुर विमुक्तेस", ये जो तुम्हारी अवस्था हैं जन्म मृत्यु माला, एक दफे जन्म लो और परिश्रम करो और खूब बैंक बैलेंस बनाओ हाँ, औअर सुखी होने का जितना आदमी चाहते हैं, होता तो नहीं, जो तक़दीर में हैं उसी को मिलता है। अगर कोई समझता भी है की खूब परिश्रम करके कमाते हैं तो वो भी छीन किया जायेगा। हाँ, वो भगवान "मृत्यु सर्व हरस चाहं"। मृत्यु रूप से जो भगवान को हम मानेंगे नहीं। जब तक जीवन है और रूपया पैसा कमाते हैं बाकि बांटना पड़ेगा। तो मृत्यु। उस समय तो आकर के सब छीन लेगा "मृत्यु सर्व हरस चाहं" सब छीन लेगा। फिर वोही दरिद्र बना देगा और फिर शरीर लेने पड़ेगा और माँ के गर्भ में दस महीना रहने पड़ेगा। फिर अगर अच्छा घर में जन्म हुआ तो एजुकेशन मिला, फिर पोस्ट मिला, फिर मरण होगा, फिर चीन लिया जायेगा। हाँ, "भूत्वा भूत्वा प्रलीयते"। तो ये सत्ता शुद्ध नहीं है। इसलिए भगवान कहते हैं सत्ता को शुद्ध करो, जिसमे ये जन्म-मरण माला जो है ये छूट जाये। हाँ, ये सब जानते ही नहीं। वो लोग तो मरने होता है और मरने के बाद सब ख़तम हो जाता है। सब प्रोफेसर लोग यूरोप में ये ही कहते हैं। वो प्रोफेसर कोटोस्की से मिला था जर्मनी में, वो कहता है स्वामीजी ये शरीर जब छूट जाता है तब कुछ नहीं सब ख़तम हो जाता है। ये एथीस्ट लोग का एहि कहना है "भस्मि भूतस्य देहस्य कुतः पुनर आगमनो भवेत्"। हाँ, हमारे देश में भी सब बड़े-बड़े नास्तिक हैं।