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760112 - Lecture SB 05.05.01 Hindi - Bombay

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



760112SB-BOMBAY - January 12, 1976 - 41.26 Minutes



Prabhupāda:

nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛ-loke
kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhujāṁ ye
tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam
(SB 5.5.1)

(Hindi)

HINDI TRANSCRIPTION

नायं देहो देहा-भाजां नृ-लोके
कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजं ये
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्
शुद्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम
( श्री. भा.५.५.१)

थिस इस दी कन्वर्सेशन। हिंदी में बोलना पड़ेगा क्या? हिंदी में बोलेंगे। ऋषबदेव उपदेश दे रहा है अपने पुत्रों को। उनके सौ पुत्र थे जिसमे जेष्ट पुत्र महाराज भारत जिसके नाम से हमारा देश का नाम हुआ है भारतवर्ष। खली ये देश नहीं, सब देश, ये पृथ्वी का नाम है भारतवर्ष। तो उनका उपदेश है नयम देहा, ये जो शरीर है, नृलोके, मनुष्य समाज में, सभी का शरीर है, कुत्ता का भी है, गधे का भी है, सूअर का भी है, देवता का भी है, अनेक शरीर है, ८४,०००,००० शरीर है जिसमे जीव ब्रह्मण कर रहें हैं। तथा देहान्तरा प्राप्ति, एक शरीर छोड़ करके अपना कर्म के अनुसार और एक शरीर को ग्रहण करता है। तो चैतन्य महाप्रभु बताते हैं "ऐ रुपे ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोण भाग्यवान जीव गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाय भक्ति-लता-बीज"। इसी प्रकार जीव, जीवात्मा ब्रह्मण कर रहे हैं। तथा देहान्तर प्राप्ति जैसा इसी शरीर में हमारा देहान्तर होता हैं। ये बच्चे लोग हैं, इनका देहान्तर होगा। ये शरीर नहीं रहेगा, बच्चा शरीर नहीं रहेगा, बालक शरीर नहीं रहेगा, युवक शरीर नहीं रहेगा, बुड्ढा शरीर भी नहीं रहेगा। एक शरीर के बाद जैसा दूसरा शरीर मिलता हैं, ये निश्चित हैं। हाँ, उद्धरण भी है; अगर कोई युवक कहे हम बुड्ढा नहीं होंगे, ये संभव नहीं है, होना ही पड़ेगा, शरीर पलटना ही पड़ेगा, ये स्वाधीनता नहीं है की हम युवक ही रहेंगे, हम बालक ही रहेंगे। नही। भगवान बड़ा सुन्दर उद्धरण दिया, "देहिनो 'स्मिन यथा देहे कौमारं यौवनं जरा तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति" इसमें कोई तर्क करने का अवकाश नहीं है। तहत देहान्तर जैसा हमलोग देख रहे हैं एक शरीर छोड़ करके और शरीर हमलोग ले रहे हैं। तो जब ये शरीर छूट जायेगा और एक शरीर हमको लेना पड़ेगा, क्या तर्क का ज़रुरत है और स्वय भगवान बोल रहे हैं। अगर कोई कहे की ये जो बालक का शरीर छोड़ करके नौजवान का शरीर मिलता है, ये सब मैं देखता नहीं, शरीर तो भस्मीभूत हो जाता है, जला दिया जाता है, फिर कैसा --। ये मूर्ख का तर्क है शरीर जैसा पलटता है जैसे बालक का शरीर युवक का शरीर हुआ वो कैसे पलटा है हम देखता थोड़े ही हैं, पलटता है, हो रहा है। बाकि वो आँख हमारा है नहीं। वो जो सूक्ष्म शरीर है वो; जैसे हम रात में सो रहे हैं और सपना मैं हम एक जंगल में चला गया। जो हमारा बगल में सोता है क्या वो देखता है कैसे हम जंगल में चला गया। बाकि असल में हम गया। हाँ, ये तो सब कोईको मालूम है हम जंगल में चला गया, है तो अच्छा पलंग पर शरीर और उसको छोड़ कर हम जंगल में चला गया, बाघ से मुलाकात हुआ, हम चिल्लाने लगे, और बगल में कोई सो रहा है बोलता है क्यों चिल्ला रहा है ? बाघ है बाघ, कहाँ बाघ है? है नहीं। बाकि है। वो देखता नहीं। इसी प्रकार ये सूक्ष्म शरीर जिस तरह से हमको एक और शरीर में ले जाता है, ये मूर्ख लोग देखता नहीं। "पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा" ये भगवद गीता में है। ये जो ज्ञान है वो देखता है। हाँ, इसलिए कहते हैं "धीरस तत्र न मुह्यति"जो धीर है, ज्ञानी है, आगे बढे हुए हैं, उसको कुछ मुश्किल नहीं है ये समझना "तथा देहान्तर प्राप्ति। वो जो मुर्ख है,संघ नहीं किया है, साधु का बात सुना नहीं, --- माफिक सोचता है, ये सब मुर्ख नहीं समझता। बाकि जो ज्ञान चक्षु है उसके लिए कोई मुश्किल नहीं है। वो जानता है, धीरस तत्र न मुह्यति। और किधर गया व्यक्ति वो भी ज्ञान चक्षु से दर्शन होता है। ये शास्त्र में , शास्त्र चक्षुष्यात। शास्त्र का जरिया से, वाया मीडिया, से देखना चाहिए। हाँ, तभी तो शास्त्र हुआ है, क्या चीज़ क्या है, भगवान क्या है, भगवान कौन है, ये सब ज्ञान हमको कहाँ से मिलता है। ये सब देखता है क्या? जैसे हमलोग वैकुण्ठ का वर्णन करते हैं, वो लोग वृन्दावन धाम का वर्णन करते हैं, नर्क का वर्णन करते हैं। अभी तो गया नहीं, बाकि शास्त्र से जो वर्णन है, उसी को, उसी से समझना चाहिए। और विशेष करके भगवान कृष्ण जैसे बता रहे हैं, तथा देहान्तरा प्राप्ति, इसमें संदेह करने का कोई जरूरत नहीं है। वो मुर्ख लोग संदेह करेगा। और भगवान युक्ति भी दे रहे हैं की कौमारं यौवनं ज़रा, "देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा" ये जो शरीर पलटता है ये बहुत युक्ति संगत है। तो ये शरीर। और भी भगवान समझा रहे हैं "न हन्यते हन्यमाने शरीरे नित्य शाश्वतो यम" ये बता रहे हैं, हमको समझना चाहिए। शास्त्र तो हमेशा भगवद वाणी होता हैं। ये सबको समझना चाहिए तब मालूम होगा हाँ ठीक हैं। "ऊर्ध्वं गच्छांति सतवस्ताः" ये सब उर्ध्व लोक हैं, स्वर्ग लुक हैं; जो लोग सात्विक जीवन व्यापन किया हैं उनको उर्ध्व लोक में स्थान मिलता हैं, और जो न उन्नति किया हैं और न अवन्नति किया हैं उसके लिए यहीं रहना हैं और अधो गछन्ति तामसाः जगन्य-गुण-वृत्ति-स्था और जीवन केवल जगन्य वृत्ति से, पाप वृत्ति से, मांस खाना, शराब पीना, और ये सब दुःसंघ उसको अधो गछन्ति वो नर्क लोक में जाता है, पशु में जन्म मिलता है, गरीब घर में जन्म मिलता है, ये सब शास्त्र में है। और उसका अनुसार हमको काम करना चाहिए तभी तो मनुष्य जीवन मिलता है। ऐसा नहीं कुत्ता भेड़ी जैसे खाया, पिया, बच्चा पैदा किया और मर गया। ये तो कुत्ता का जीवन है। सा एव गो-खरः जो मनुष्य जीवन को संपूर्ण नहीं करता है। मनुष्य जीवन इसलिए मिला है जो समझे। ये शास्त्र सभी भगवद गीता, श्रीमद भागवतम, वेद-वेदांत, ये सब बनाया गया है क्यों? की मनुष्य जीवन में इसको आश्रय ले। "तद्-विज्ञानार्थं स गुरुम् एवभिगच्छेत्" ये विज्ञानं को समझे। जैसे स्कूल कॉलेज जाता है, बल्कि आजकल ये सब टेस्ट मिट गया है। वो हतौड़ी पीटने के लिए स्कूल कॉलेज जाता है, वो आत्मा ज्ञान के लिए नहीं जाता है। उसी को बहुत बड़ा समझते हैं की किस तरह से हतौड़ी का फैक्ट्री खोला जाए, सब ज्ञान दिया जाए, इसके लिए प्रदेश में जाए और पैसा खूब पैदा करे, और खूब मज़ा करें, ये सब चलता रहता है। इसलिए ऋषबदेव कहता हैं ये जो सब कार्यक्रम है, दिन रात परिश्रम करना। इसलिए कहा है केवल काम नयम ""नयं देहो देहा-भजं नृ-लोके कष्ठान् कामान अरहते" इतना कष्ट करके और केवल इन्द्रिय तरपन करना है। ये तो सूअर भी करता है इसलिए सूअर का नाम लिया है। जो ये जो परिश्रम इतना दिन रात, सूअर आपलोग देखिएगा, कलकत्ता में तो है नहीं, कहीं कहीं होगा, गाओं में तो है। अब देखिये सूअर दिन भर रात भर घूमता फिरता है, परिश्रम, किस लिए कहाँ गूढ़ है बस। वोई बात हुआ। गूढ़ खाने के लिए दिन भर मेहनत करता है। और हमलोग को खाद्य है, ..... कुछ भरने वाला है। ऐसी चीज़ के लिए हमलोग परिश्रम करते हैं। जो खाएंगे हलवा-पूरी वो भी गूढ़ बन जाएगा। जो सूअर जो है गूढ़ बनने से खता है और हम गूढ़ बनाने के लिए कहते हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है। हाँ, अगर कोई कहे हम तो लुची पूरी कहते हैं, लुची पूरी तो गूढ़ बनेगा उसके बाद तो सूअर खायेगा। तो इसलिए ईश्वर का उदहारण दिया है। नयम देहा, ये जो शरीर मिला है, ये शरीर, नयम देहा नृलोके, मनुष्य समाज में कष्टान कामान, चाहिए, ये जो हमारा डिमांड है शरीर के लिए, उसको खाना भी चाहिए, सोना भी चाहिए, इन्द्रिय है उसको भी तरपान करना चाहिए, और आहार, निद्रा, भय, मैथुन, और भय से बचने के लिए भी कुछ तरकीब करना चाहिए। तो बाकि, असल बात भूल नहीं जाओ। इतना सूअर, गधा हो गया तुमलोग की असल बात भूल गया। ये उचित नहीं है। ये आज नहीं, उस समय भी था नहीं तो। ऋषबदेव उपदेश कर रहे हैं। आजकल ज्यादा हो गया सूअर गधा, उस समय कम था। क्योंकि सूअर गधा से आदमी बनाने के लिए ये वर्णाश्रम बनाया गया था, उसको छोड़ दिया। सूअर गधा सभी है, जनमन जायते शूद्र, जन्म से सभी सूअर गधा है, इसमें कोई बात नहीं। बाकि वो जो वर्णाश्रम धर्म विचार है, वो सूअर गधा को देवता बनाने के लिए है आहिस्ते-आहिस्ते। जो सबसे इंटेलीजेंट है उसको ब्राह्मण बनाया जा सकता है। हाँ, और उससे जो लेस्स है उसको क्षत्रिय, उससे जो लेस्स है उसको वैश्य, और जो बिलकुल लेस्स इंटेलीजेंट वो शूद्र। तो आजकल जो है वो इंटेलिजेंस ही है नहीं। इसलिए शास्त्र में कहते हैं कलौ शूद्र संभव, अभी कोई हैं नहीं केवल शूद्र-शूद्र। इसलिए शास्त्र का कोई मर्यादा नहीं है। क्यूंकि शास्त्र है ब्राह्मण के लिए। ब्राह्मण लोग पंडित अपना आचरण शुद्ध करे, समो दमः तप शौचं दान, ये सब ब्राह्मण लोग का द्वादश गुण। हाँ, तो कहाँ सिखाया जाता है। जो ब्राह्मण कुल में जन्म हो वो भी छोड़ दिया वो भी हतौड़ी गिनने के लिए। तो फिर उसको कैसे मनुष्य समझ रहा है। सब मिट गया। इसलिए कलियुग में एक ही साधन है की सब भगवान का नाम लो। "हरेर नाम हरेर नाम हरेर नामैव केवलम् कलौ नास्त्य एव नास्त्य एव नास्त्य एव गतिर अन्यथा" सब सूअर गधा हो गया है और केवल अपना इन्द्रिय तरपान करने के लिए दिन भर शरीर के लिए परिश्रम करते हैं। ऋषबदेव कहते हैं ये उच्चित नहीं है। इस तरह से जो समय नष्ट कर रहे हो, मनुष्य जीवन, ये बहुत मूल्यवान है, अनेक जन्म के बाद मिला है। उसको केवल खाने पिने के लिए, बच्चा पैदा करने के लिए बर्बाद करना ये उच्चित नहीं है। ये ऋषबदेव का मूल उपदेश है। हाँ, तो किस लिए न तपो, इसलिए कहते हैं "तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्देद"। थिस इस योर बिज़नेस। सत्ता, हमारा जो एक्सिस्टेंस का मूल वृत्ति है जैसे शरीर है, ये शरीर शुद्ध नहीं है। इसलिए तो हमको मरना पड़ता है। क्यों मरता है? कोई तो मरने को नहीं चाहता है। हाँ, जन्म मृत्यु जरा व्याधि, ये सब बुखार चढ़ जाता है, कौन बुखार को चाहता है। ये चढ़ जाता है कोई कारण से। बीमार हो गया, कोई ताप हुआ, कोई इन्फेक्शन हुआ, इसलिए बुखार। बुखार होना कोई साधारण नहीं, असाधारण है। इसी प्रकार जब शास्त्र से हमको खबर मिल रहा है तो न हन्यते हन्यमाने शरीरे। ये जीवात्मा जो है ये शरीर नष्ट हो जाने से वो उनका मरण नहीं होता है। उसका और एक शरीर मिलता है। जैसे कपड़ा पहात गया, उसको फ़ेंक देता है और नया लेते हैं तथा देहान्तर, इसी प्रकार ये शरीर जब चलता नहीं, इसका मशीन सब ख़राब हो जाता है। जैसे आपलोग मोटर लेते हैं, पुराण गाड़ी है, चलता नहीं, इसको फ़ेंक देते हैं, नया गाड़ी ले लेते हैं। उसी प्रकार ये जो शरीर है ये भी एक गाड़ी है, यन्त्र, शास्त्र में भगवान खुद बताये हैं यन्त्र रुढानी मायया, ये माया का जीव एक यन्त्र है। "ईश्वरः सर्व-भूतानाम हृद-देशे अर्जुन तिष्ठति ब्रह्मायां सर्व भूतानि यन्त्ररूधानि मायया" ये बहुत इम्पोर्टेन्ट स्लोका है। इसको आपलोग थोड़ा अच्छी तरह से समझिये की भगवान सबके शरीर में हैं, भगवान भी हैं, मैं भी हूँ। शरीर में दो आत्मा हैं, जीवात्मा और परमात्मा। हाँ, ये भगवान बताये हैं भगवद-गीता में। "क्षेत्र-ज्ञान चापि माम् विद्धि सर्व-क्षेत्रेषु भारत क्षेत्र-क्षेत्रज्ञयोर ज्ञानं यत् तज ज्ञानं मतं मम" क्षेत्र, क्षेत्रजन्य, हाँ, ये शरीर है क्षेत्र, ज़मीन, और जैसे ज़मीन होता है और ज़मीन का कोई किसान भी होता है दोनों मिलकरके एक फल को उत्पादन करते हैं जिसका हमलोग भोजन करते हैं। इसी प्रकार ये शरीर जो है, ये शरीर से हमलोग काम लेते हैं, हमलोग जीवात्मा और इसका जो फल है उसको भोगते हैं "कर्मणा दैव नेत्रेणा। हाँ, तो भगवान भी यूज़ करना चाहते हैं। तो भगवान कहते हैं ये जो शरीरी, शरीर का मालिक जीवात्मा हैं इसको भी क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। और भी एक क्षेत्रज्ञ है वो मैं हूँ, "क्षेत्र-ज्ञान चापि माम् विद्धि सर्व-क्षेत्रेषु भारत। जैसे जीवात्मा है वो अपन अशरीर का ही खबर रखता है। हम आप लोग जैसा है, हमारा जो सुख-दुःख है शरीर में वो हम बोल सकते हैं, आप का जो सुख-दुःख है वो आप बोल सकते हैं, बाकि भगवान जो है सर्व क्षेत्रेषु, भगवान सब का सुख-दुःख जानता है। हमारा भी जानता है, अप्पके भी जानता है। तो दो है। वो मुर्ख हैं जो कहते हैं जीवात्मा परमत्मा एक हैं। उसको ज्ञान ठीक नहीं हैं। जीवात्मा अलग और परमात्मा अलग, इसलिए भगवान कहते हैं च, च का अर्थ होता हैं एवं, अ, और बात भी एहि है। हम अगर परमात्मा होता तो आप का शरीर का सुख-दुःख हमको मालूम होता और अगर आप परमात्मा होते तो हमारा सुख-दुःख आपको मालूम होता। हमको मालूम नहीं है, बाकि भगवान को मालूम है। इसीलिए तो हमलोग भगवान को मानते हैं। 'सर्व-क्षेत्रेषु भारत'। हाँ, जीवात्मा परमात्मा दो है। और भी भगवान कहते हैं की "ईश्वरः सर्व-भूतानाम हृद-देशे अर्जुन तिष्ठति"। सर्व-भूतानाम ईश्वर भगवान रहते हैं, तो मैं क्या सर्व भूत में रहता हूँ? तो हम भगवान कैसे हुआ? ये सब विचार नहीं करते हैं। भगवान बन जाते हैं। हम भगवान हैं। तो कैसे भगवान हुआ। सब जीव का आत्मा मैं है, सब जीव का सुख-दुःख समझते हो? नहीं, कुछ नहीं, भगवान बन गया। "ईश्वरः सर्व-भूतानाम हृद-देशे अर्जुन तिष्ठति" वो जो भगवान है वो परमात्मा है। वो सब के ह्रदय में बैठे हुए है। ये उपनिषद् में भी है की दो पक्षियां हैं, वो वृक्ष में बैठे हुए हैं। वो दो पक्षी कौन हैं? एक जीवात्मा और परमात्मा। तो एहि जो पक्षी है वो वृक्ष का फल को कहते हैं। और दूसरा जो पक्षी है वो देखते हैं, अनुमन्ता, उपादष्टा, वो केवल देखते हैं। ये क्या चाहता है। तो भगवान को "सुहृदं सर्व भूतानां" साबके मित्र है, भगवान इतना सुन्दर मित्र है की ये जीवात्मा कोई भी शरीर में जाये, सूअर का शरीर में, कुत्ता का शरीर में जाये, भगवान साथ-साथ जाते हैं। इसके लिए मुर्ख को कैसा समझाया जाये। ये जो देहान्तर प्राप्त केवल करते हैं दुःख भोगता है, सुख भोगता है, इसी प्रकार से इस दुनिया में भ्रमण करते हैं। किस तरह से इनको ज्ञान दिया जाये, ये मुर्ख, ये सब छोड़, गधा ये सब छोड़, मूढ़ा, छोड़ ये सब यदि सुखी होने को चाहता है। क्यों ऐसा फिरता है, भटकता है, एक शरीर छोड़ के एक शरीर, तथा देहान्तर प्राप्ति, ये मुर्ख को समझाने के लिए भगवान आते हैं। बाकि इतना बड़ा मुर्ख हमलोग हैं जब भगवान समझाने से भी हमलोग नहीं समझते। इतना बड़ा मुर्ख है। इसलिए भगवान कहते हैं "न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा प्रपद्यन्ते नराधम" जो एकदम नराधम है, सबसे नीच है मनुष्य समाज में, ये सब समझता नहीं। हाँ, तो जो समझते नहीं भगवद-गीता और अंट-शंट बकते हैं की भगवान कला है, भगवान को कौन, ये सब। सब कुछ जानता नहीं मनुष्य समाज का, दुर्दैव है जो ऐसा मुर्ख लोग सब प्रचारक हुआ है, ये भगवान को छोड़ के अंट-शंट सब बकता है। तो इसलिए भगवान कहते हैं जो हमारा विषय नहीं जानता, जाने तभी तो प्रपदय, प्रपद्यन्ते, जो जानता है जैसे भगवद-गीता में बताया है बहुनाम जन्मनाम अन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते" जो भगवान का शरण में आत्म समर्पण कौन कर देता है जो अनेक जन्म के बाद, बहुनाम जन्मनाम, जब वो ठीक-ठीक समझता है (हरे कृष्णा) की भगवान विभु और मैं अणु, हमारा उचित है की भगवान के चरण में शरण लेना। भगवान खुद भी कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य मां एकम शरणम व्रज: तो वो काम मनुष्य के लिए है। मनुष्य का ये काम नहीं है की सूअर के जैसे दिन भर परिश्रम करे और फिर वही भूक हटाने का चीज़ खाये और मस्त रहे। ये मनुष्य का काम नहीं है। इसलिए कहते हैं "नायं देहो देहा-भाजाम नृलोके" कुत्ते भेड़ि के जैसे ऐसा परिश्रम करता है और भोगता है दिन भर उसका उपाय नहीं है क्यूंकि वो कुत्त्ता बना है। और मनुष्य को जी, हमको कुत्ता ही बनना है, सूअर बनना है, तो ये तो हम मनुष्य जीवन को बर्बाद कर रहे हैं। ये समझा रहा है "नायं देहो देहा-भाजाम नृलोके" देहो भाजाम का अर्थ होता है जो भी ये भौतिक शरीर ग्रहण किया है "भुमिर आपो 'नलो वायु" ये जड़ शरीर जो है, ये भुमिर आपो 'नलो वायु, जल है, मट्टी है, और है, वायु है, और आकाश है, ये जड़ है और इसका भीतर सूक्ष्म शरीर है, मन, बुद्धि, अहंकार, और वो सूक्ष्म शरीर जो धारण करते हैं वो जीव है। हाँ, कोई तो फँस जाते हैं ये जड़ शरीर में और कोई फँस जाते हैं सूक्ष्म शरीर में। हाँ, और असल जो शरीर है उसको कोई जानता नहीं। हाँ, "मूढ़ो यं नाभिजानाति लोको माम अजम् अव्ययम्"। हाँ, इसलिए उसको किस तरह से आदमी समझ सकता है, तो उसके लिए ऋषबदेव बताते हैं तपः "तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च । त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा ॥ १३ ॥ देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञा: श्रद्धयान्विता: । क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानल: ॥ १४ ॥" और एक जगह में सुखदेव गोस्वामी महाराज परीक्षित, ये प्रोसेस है। कुत्ता भेड़ि जैसे रहने से कुछ ज्ञान नहीं मिलेगा। हाँ, और तपस्या करने से तपसा ब्रह्मचर्येण सत्य ट्रुथफुलनेस, शौचं, क्लीनलीनेस, सूचि, इसलिए ब्राह्मण का नाम है सूचि। और जो ब्राह्मण नहीं है वो मुचि।। हाँ, सूचि एंड मुचि; तो मुचि कौन है जो भगवान का संपर्क छोड़ दिया है वो मुचि खाली चमार के जैसे, एक्सपर्ट होता है। चमड़ा समझता है, ये गाय का चमड़ा, भैंस का चमड़ा है, ये …. का चमड़ा है। तो जो चमड़े में बद्ध हो गया। ये चमड़ा इंडियन है, ये चमड़ा अमेरिकन है, ये चमड़ा हिन्दू है, ये चमड़ा मुस्लिम है, वो मुचि है सूचि नहीं। हाँ, सूचि तो तब होगा जब वो समझेगा "अहं ब्रह्मास्मि"। अब जो ब्रह्मा वस्तु है, आत्मा वस्तु है, परमात्मा का अंश है, तब वो ब्राह्मण होगा। ब्रह्म जानती इति ब्राह्मण। ये ब्रह्म को समझते हैं, ये ब्रह्म ज्ञान जिसको लाभ हुआ है, वो ब्राह्मण है। जो शरीर से अपने को आइडेंटिफाई करता है, वो तो चमड़ा का एक्सपर्ट हो गया। मुचि हो गया। मुचि का मने टेनरी का एक्सपर्ट। कुछ लोग मुचि बोलते लेकिन आजकल अच्छा लैंग्वेज में बोलते हैं टेनरी एक्सपर्ट। टेनरी एक्सपर्ट बोलते हैं, क्या काम करते हो? हम टेनरी एक्सपर्ट हैं। ये तो बहुत भरी पोस्ट है। (हँसते हुए)और नहीं तो क्या है, मुचि है। तो मुचि बोलने से बिगड़ जायेगा। और टेनरी एक्सपर्ट है, ४००० रूपया तन्खा मिलता है। ठीक है, गणमान्य है। ये सब चलता है। तो ये सब जो कहते हैं टेनरी एक्सपर्ट मत बनो। तपस्या करो, ब्राह्मण बनो। तपो, तपस्या पहली चीज़ है मनुष्य के लिए। हाँ, मनुष्य जीवन का अर्थ ही होता है तपस्या। अथातो ब्रह्म जिज्ञ्यासा। और सब जीवन में, कुत्ता जीवन में, सूअर जीवन में, वोही चार काम, आहार, निद्रा, भय, मैथुनम च। आहार करो, खूब सोओ, इन्द्रिय तर्पण करो, और किस तरह से दुश्मन से बचाना है उसका उपाय करो। और भय। भय तो रहेगा सब समय। जब तक ये शरीर रहेगा, ये भय रहेगा। और निर्भय, निर्भय सत्ता संशुद्धिः भगवद-गीता में। ये तपस्या है। तो भय नहीं रहेगा और सत्ता संशुद्धिः। सत्ता का अर्थ होता है जो हमारा एक्सिस्टेंस। हाँ, तो वो क्यों होता है, हमको मरने पड़ता है। ये सब सोचना चाहिए। तपो दिव्यम; तपस्या मने बहुत तकलीफ उठाना। ये भौतिक काम में भी होता है। कोई बड़ा साइंटिस्ट डिस्कवर करता है वो भी तपस्या करता है। बिना तपस्या के कोई नाम ज़्यादा सइंटीस्ट डिस्कवर बहुत करते हैं। जैसे कल हमलोग आ रहे थे मुंबई से वो पायलट मिस्टर भट्टाचार्य वो थोड़ा हमलोग को खातिर करके कमरे गया। वो पायलट सब दिखाया किस तरह से उतरता है किस तरह से उठता है। बड़ा इंटरेस्टिंग। तो ये जो सब इलेक्ट्रॉनिक मेथोड सब है। एक बटन टिप करो सब बटन-बटन ही है। ये भी तपस्या है। नहीं तो आश्चर्य, वंडरफुल मशीन। तो ये भी तपस्या है। तो आदमी आजकल भौतिक जगत में इसी तपस्या में लगा है। बाकि ऋषबदेव कहते हैं तपो दिव्यम। इसके लिए तपस्या कीजिये। ये कारीगरी है, ये तपस्या नहीं। पहले ये सब आश्चर्यजनक एयरोप्लेन विमान और अच्छा-अच्छा मकान, ये सब समय में है, ये डेमोन लोग बनाता था। डेमोन, ब्राह्मण नहीं बनाता था। हाँ, ब्राह्मण का काम था तपस्या और भगवान को प्राप्त करने के लिए ब्रह्म जानाति। वो तपस्या के लिए बताते हैं। जो आश्चर्यजनक एयरोप्लेन बनाना, आश्चर्यजनक है बाकि बहुत रिस्की है। एक बटन छोड़ के और एक बटन दाब दे तो बस काम ख़तम। परफेक्ट नहीं है। हाँ, परफेक्ट नहीं है। उसमे कारीगरी है, अवश्य है, बाकि वो कारीगरी संपूर्ण नहीं है। हाँ, तो ये सब कारीगरी, भौतिक कारीगरी जो है, इसको भी चाहिए। बाकि इसके पीछे जो असल कारीगरी है की अपना शुद्धयेत सत्ता, जिसमे सत्ता शुद्ध हो जाये, वो असल कारीगरी है। हाँ, सत्ता, शुध्दयेत सत्त्ता। तो मनुष्य जीवन का ये काम है जो सत्ता को शुद्ध करना। मैं जो "हन्यते हन्या माने शरीरे"। ये शरीर छूट जाने से मैं मरता नहीं। मैं जीवित रहता है। "तथा देहान्तर प्राप्ति" एक और शरीर, ये जो बोथेरेशन है, इसको समझना। देखिये ये बंगला में हम बैठे हैं और एक पेड़ भी है, दस हाथ दूर में एक पेड़ है, हमलोग इधर कमरे में अच्छी तरह से बैठे हुए हैं। बाकि वो पेड़ दस हाथ दूर से दस इंच भी आगे नहीं बढ़ सकेगा। दस इंच, लेकिन ये जीवन है। हाँ, ये भी एक जीवन है, क्यों? इस प्रकार जीवन मिला क्यूंकि वो सत्ता शुद्ध नहीं है। हाँ, वो निचे गिरते-गिरते पेड़ का जन्म मिल जाता है। हाँ, फिर उसका चलना फिरना ही बंद हो जाता है। और एक जगह खड़ा होकर उसको रहने पड़ता है। ये सब देखना चाहिए। ये क्यों हुआ? हमको भी हो सकता है। इसका उधारण बहुत है जैसा यमला-अर्जुन, वो देवता का संतान था। बाकि वो पशु के ऐसे व्यवहार किया। तो नारद मुनि उनको कर्स किया। ये तो पशु होने जाता है, तो इसको थोड़ा शाशन करें। तो उसको बोलै की जब तुम्हारा ऐसा पशु का नज़र है, वो लोग नंगा होकरके और अप्सरा को लेकरके वो सब मज़ा कर रहे थे। नारद मुनि उधर से जा रहे थे, तो अप्सरा लोग कपड़ा संभाल लिया, बाकि ये लोग शराब पीकर के इतना मौज था तो देखा ही नहीं, नंगा ही रह गया। तो नारद मुनि देखा की ये इतना बड़ा मुर्ख हो गया देवता के घर में जन्म होते हुए भी, तो इसको कुछ शाशन करना चाहिए। तो इसको अभिशाप दिया की तुम वृक्ष योनि में आओ। नंगा होकर के रास्ता में खड़ा रहो, कोई भी देखे कुछ लज्जा नहीं। हाँ, ये वृक्ष योनि में होता है ज बिलकुल लज्जाहीन। उसको वृक्ष योनि होता है। तो ये सब शास्त्र में है, इसको हमको समझना चाहिए। जब लज्जाहीन हो जाये औअर शुद्ध नहीं रहे और आगे बढ़ने के लिए कोशिश नहीं करें, तपस्या नहीं करे। ऐसे सब कुत्ता भेड़ी है इस प्रकार रह जाये, तो फिर हमारा मनुष्य जीवन मिलने से क्या लाभ। ये समझना चाहिए। इसलिए ऋषभदेव कहते हैं तपः, तप साधन ये तपस्या है। ये ही मनुष्य जीवन है। पहले हमारा ब्रह्मचारी बनाया जाय, तपस्या, बच्चेपन से। हाँ, "कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह", ये सब कहाँ सिखाया जाता है। बच्चे से, ब्रह्मचारी सिखाया जाये। हाँ, ब्रह्मचारी गुरूकुले वसंदांता, गुरुकुल में वास करने का क्या मतलब, उसको दांत बनाया जाता है, बड़ा धीर होये, धीरस तत्र न मुह्यति। ये सब नहीं है। शुरू से ही बीड़ी फूंकना सीखता है, असत संघ करने सीखता है। इसीलिए तपस्या। तो कलियुग में बहुत कड़ी कठिन तपस्या संभव है। हाँ, क्यूंकि वो जो भी अलग हो गया। तो इधर तो कम से कम इतना तो तपस्या किया जाये की एक संख्यापूर्वक भगवान का नाम लिया जाये। हाँ, "संख्या-पूर्वक-नाम-गण-नटिभिः", जैसे गोस्वामी लोग करते थे। हमको सीखने के लिए की एक संख्या जरूर पूर्ण करना था। हाँ, तो बड़े-बड़े आचार्य लोग जैसे हरिदास ठाकुर तीन लाख नाम जपते थे। ये तो संभव है नहीं तो कम से कम एक संख्या निर्दिष्ट करना चाहिए। तो हमलोग निर्दिष्ट कर दिया की सोलह फेर नाम जप करना है, जिसमे पच्चीस हज़ार नाम। ये दो घंटा में हो सकता है। इतना हमलोग काम करते हैं और दो घंटा हमलोग तपस्या नहीं कर सकते हैं। अभी करेंगे, बड़ा मुश्किल है। हाँ, आइये बैठिये। तो ये तपस्या जरूर करना चाहिए। तो हमलोग ये तपस्या के लिए हमर जितना शिष्या है इतना दिया की इतना ही तपस्या करो, सोलह माला फेर जपा करो और स्त्रिया, दूत, पान, ये चार चीज़ छोड़ दो। यानि अवैध स्त्री संघ। कोई तो पुरुष, आजकल के स्त्री-पुरुष का विचार नहीं होता है। तो वो नहीं होने चाहिए। विवाहित होकर के स्त्री-पुरुष अच्छी तरह से रहो। हाँ, शास्त्र सहमत जो है वो स्त्री-पुरुष का मिलन, वो ठीक है और बिना शास्त्र का जो स्त्री=पुरुष का मिलन है वो पाप है। मैं जो "हन्यते हन्या माने शरीरे"। ये शरीर छूट जाने से मैं मरता नहीं। मैं जीवित रहता है। "तथा देहान्तर प्राप्ति" एक और शरीर, ये जो बोथेरेशन है, इसको समझना। देखिये ये बंगला में हम बैठे हैं और एक पेड़ भी है, दस हाथ दूर में एक पेड़ है, हमलोग इधर कमरे में अच्छी तरह से बैठे हुए हैं। बाकि वो पेड़ दस हाथ दूर से दस इंच भी आगे नहीं बढ़ सकेगा। दस इंच, लेकिन ये जीवन है। हाँ, ये भी एक जीवन है, क्यों? इस प्रकार जीवन मिला क्यूंकि वो सत्ता शुद्ध नहीं है। हाँ, वो निचे गिरते-गिरते पेड़ का जन्म मिल जाता है। हाँ, फिर उसका चलना फिरना ही बंद हो जाता है। और एक जगह खड़ा होकर उसको रहने पड़ता है। ये सब देखना चाहिए। ये क्यों हुआ? हमको भी हो सकता है। इसका उधारण बहुत है जैसा यमला-अर्जुन, वो देवता का संतान था। बाकि वो पशु के ऐसे व्यवहार किया। तो नारद मुनि उनको कर्स किया। ये तो पशु होने जाता है, तो इसको थोड़ा शाशन करें। तो उसको बोलै की जब तुम्हारा ऐसा पशु का नज़र है, वो लोग नंगा होकरके और अप्सरा को लेकरके वो सब मज़ा कर रहे थे। नारद मुनि उधर से जा रहे थे, तो अप्सरा लोग कपड़ा संभाल लिया, बाकि ये लोग शराब पीकर के इतना मौज था तो देखा ही नहीं, नंगा ही रह गया। तो नारद मुनि देखा की ये इतना बड़ा मुर्ख हो गया देवता के घर में जन्म होते हुए भी, तो इसको कुछ शाशन करना चाहिए। तो इसको अभिशाप दिया की तुम वृक्ष योनि में आओ। नंगा होकर के रास्ता में खड़ा रहो, कोई भी देखे कुछ लज्जा नहीं। हाँ, ये वृक्ष योनि में होता है ज बिलकुल लज्जाहीन। उसको वृक्ष योनि होता है। तो ये सब शास्त्र में है, इसको हमको समझना चाहिए। जब लज्जाहीन हो जाये औअर शुद्ध नहीं रहे और आगे बढ़ने के लिए कोशिश नहीं करें, तपस्या नहीं करे। ऐसे सब कुत्ता भेड़ी है इस प्रकार रह जाये, तो फिर हमारा मनुष्य जीवन मिलने से क्या लाभ। ये समझना चाहिए। इसलिए ऋषभदेव कहते हैं तपः, तप साधन ये तपस्या है। ये ही मनुष्य जीवन है। पहले हमारा ब्रह्मचारी बनाया जाय, तपस्या, बच्चेपन से। हाँ, "कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह", ये सब कहाँ सिखाया जाता है। बच्चे से, ब्रह्मचारी से सिखाया जाये। हाँ, ब्रह्मचारी गुरूकुले वसंदांता, गुरुकुल में वास करने का क्या मतलब, उसको दांत बनाया जाता है, बड़ा धीर होये, धीरस तत्र न मुह्यति। ये सब नहीं है। शुरू से ही बीड़ी फूंकना सीखता है, असत संघ करने सीखता है। इसीलिए तपस्या। तो कलियुग में बहुत कभी कठिन तपस्या संभव है। हाँ, क्यूंकि वो जो भी अलग हो गया। तो इधर तो कम से कम इतना तो तपस्या किया जाये की एक संख्यापूर्वक भगवान का नाम लिया जाये। हाँ, "संख्या-पूर्वक-नाम-गण-नटिभिः", जैसे गोस्वामी लोग करते थे। हमको सीखने के लिए की एक संख्या जरूर पूर्ण करना चाहिए। हाँ, तो बड़े-बड़े आचार्य लोग जैसे हरिदास ठाकुर तीन लाख नाम जपते थे। ये तो संभव है नहीं तो कम से कम एक संख्या निर्दिष्ट करना चाहिए। तो हमलोग निर्दिष्ट कर दिया की सोलह फेर नाम जपा करो, जिसमे पच्चीस हज़ार नाम है। ये दो घंटा में हो सकता है। इतना हमलोग काम करते हैं और दो घंटा हमलोग तपस्या नहीं कर सकते हैं। अभी करेंगे, बड़ा मुश्किल है। हाँ, आइये बैठिये। तो ये तपस्या जरूर करना चाहिए। तो हमलोग ये तपस्या के लिए हमारा जितना शिष्या है उनको बता दिया इतना तपस्या करो, सोलह माला फेर जपा करो और स्त्रिया, दूत, पान, चाय,ये चार चीज़ छोड़ दो। यानि अवैध स्त्री संघ,अवैध पुरुष। आजकल के स्त्री-पुरुष का विचार नहीं होता है। तो वो नहीं होने चाहिए। विवाहित होकर के स्त्री-पुरुष अच्छी तरह से रहो। हाँ, शास्त्र सहमत जो है वो स्त्री-पुरुष का मिलन, वो ठीक है और बिना शास्त्र का जो स्त्री-पुरुष का मिलन है वो पाप है। उसको नहीं करो और जीव हिंसा प्रथा , पशु को मारकर के खाना, ये कसाई से मांस लियाकर खाना। ये महापाप है। तुम्हारे लिए भगवान इतना चीज़ बनाया है, पत्रं पुष्पम फलम तोयं, हज़ारों किस्म का, तो मनुष्य है तो उसको खाओ, भगवान का प्रसाद। तूम मांस, खड़ज्या, सब बहुत ख़राब चीज़ है इसको क्यों खाते हो। तो एहि तपस्या है। ये अवैध स्त्री संघ, इसको छोड़ देना चाहिए, और मांसाहारी भक्षण ये छोड़ देना चाहिए, और नशा छोड़ देना चाहिए और गैंबलिंग। ये सब चीज़ छोड़ना ही तपस्या है। तपो दिव्यम, इसमें भगवद भक्ति लाभ। इस को देखिये प्रमाण स्वरुप। ये सब चीज़ में यूरोपियन, अमेरिकन फंसे थे। अब देखिये सब छोड़ दिया और भगवद भक्ति हो रही है। ये तपस्या है। ये चार चीज़ छोड़ देना है और भगवान का नाम जप। ये कलियुग सभी कर सकते हैं, कोई मुश्किल नहीं है। तपो दिव्यम; दिव्यम, क्यों ये तपस्या किया जाये। जिसमे भगवान को प्राप्त कर सको। हम, और हाँ, वो ही असल उद्देश्य है। और भगवान को वही प्राप्र्त कर सकते हैं जो की शुद्ध हो तपस्या से। नहीं तो नहीं मिल सकेगा। "येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:" ॥ २८ ॥ भगवद भजन दृढ़ होक करके इसी जीवन में हम भगवान को प्राप्त करेंगे, बैक टू होम बैक टू गोडहेड। तो उसके लिए थोड़ा तपस्या कीजिये। केवल कुत्ता भेड़ी के जैसे खाना, पीना, मज़ा करना और लम्पन-झंपन करने से कुछ होगा नहीं। क्यूंकि प्रकृति का शाशन में है। प्रकृति को माना नहीं। लम्पन-झंपन करने से क्या होगा? वो कुत्ता का ऐसे लम्पन-झंपन होगा, उसमे लाभ कुछ नहीं। करुणकी तुम प्रकृति का शाशन में है। वो जैसे दुर्गा देवी महिषासुर को शाशन कर रहे हैं, वो बहुत लम्पन-झंपन किया, आखिरी में दुर्गा देवी उसको संहार किया। तो प्रकार दुर्गा देवी छोड़ेगा नहीं किसी को। ये नहीं समझो की वो असुर पर शाशन किया था, हमको नहीं करेंगे। ये भूल है। जो असुर होगा;असुर का अर्थ क्या है, जो भगवान का मानता नहीं, वो असुर है। जो असुर होगा, दुर्गा देवी उसको ख़तम कर देगा। हाँ, ये समझना चाहिए। इसलिए मनुष्य जीवन में तपस्या करनी चाहिए। तपो दिव्यम, दिव्यम मने दैव, दिव्यम भगवान को भी। हाँ, कलियुग में बहुत सरल है भगवन को प्राप्त करने के लिए। सब पतित हैं हम लोग। ऐसे ही भगवान हम पर कृपा करके और उपाय भी बता दिया। हाँ, की जंगल में जाकरके तपस्या करने को नहीं होगा; आप जहाँ हैं वहीँ रहिये; स्थान स्तुति गता तनु वान मनोभिः, अपने स्थान में रहिये। कोई गृहस्थ आश्रम से सन्यास लेने पड़ेगा, ऐसा कोई बात नहीं है, केवल सुनिए भगवान की बात। इसलिए हमलोग सेण्टर खोलते हैं की आपलोग कृपा करके आइये और ये बह्गवाद गीता, भागवत को सुनियेगा और सुनते-सुनते श्रवणम कीर्तनम विष्णो फिर चेतो दर्पण मार्जनम, चेतो दर्पण मार्जित हो जाएगा। आहिस्ते-आहिस्ते सब चीज़ हो जायेगा। ये ही हमलोग का आप सबसे निवेदन है। जो इधर आइये और जहाँ तक हो सुनिए, और नहीं तो घर में ही सुनिए, सुनिए जरूर भगवद-गीता जैसे बताये हैं, उसका अंट-शंट अर्थ करके सबको सर्वनाश न कीजिये। उपकार कीजिये। भगवान जो बोला वो सब ठीक है। हमसे इधर-उधर बात करके आदमी को भड़काना ये ठीक नहीं है, ये महा पापी होता है। ये इंटरप्रिटेशन करके अपना भी सर्वनाश करते हैं और दूसरे का भी करते हैं। ये नहीं करना चाहिए। जैसे भगवद-गीता, इसलिए हमलोग भगवद-गीता एस इट इस, नो इंटरप्रिटेशन हाँ। जैसे भगवान बताये हैं मन मना भव मद भक्त, भगवान बोलता है सब समय हमारा चिंतन करो, हमलोग बोलते हैं करो चिंतन। हमको इंटरप्रिटेशन करने का क्या जरूरत है। ये महा मूर्खता है। सब छोड़ दीजिये बदमाशी और जैसे भगवान बताते हैं वैसे कीजिये। आपका जीवन सफल होगा। थैंक यू वेरी मच। जय श्रीला प्रभुपाद।