751114 - Lecture SB 05.05.01 Hindi - Bombay
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Prabhupāda:
- oṁ ajñāna-timirāndhasya
- jñānāñjana-śalākayā
- cakṣur-unmīlitaṁ yena
- tasmai śrī-gurave namaḥ
- śrī-caitanya-mano 'bhīṣṭaṁ
- sthāpitaṁ yena bhū-tale
- svayaṁ rūpaḥ kadā mahyaṁ
- dadāti sva-padāntikam
- he kṛṣṇa karuṇā-sindho
- dīna-bandho jagat-pate
- gopeśa gopīkā-kānta
- rādhā-kānta namo 'stu te
- tapta-kāñcana-gaurāṅgi
- rādhe vṛndāvaneśvari
- vṛṣabhānu-sute devi
- praṇamāmi hari-priye
- śrī-kṛṣṇa-caitanya
- prabhu-nityānanda
- śrī-advaita gadādhara
- śrīvāsādi-gaura-bhakta-vṛnda
- hare kṛṣṇa hare kṛṣṇa
- kṛṣṇa kṛṣṇa hare hare
- hare rāma hare rāma
- rāma rāma hare hare
- ṛṣabha uvāca
- nāyaṁ deho deha-bhājāṁ nṛloke
- kaṣṭān kāmān arhate viḍ-bhujāṁ ye
- tapo divyaṁ putrakā yena sattvaṁ
- śuddhyed yasmād brahma-saukhyaṁ tv anantam
- (SB 5.5.1)
(Hindi)
HINDI TRANSLATION
प्रभुपाद:
- ॐ अज्ञान-तिमिरान्धस्य
- ज्ञानाञ्जन-शलाकया
- चक्षुर-अनमिलितं येन
- तस्मै श्री-गुरवे नमः
- श्री-चैतन्य-मनो ‘भिष्टम्
- स्थापितम् येन भू-तले
- स्वयं रूपः कदा मह्यम्
- ददाति स्व-पदान्तिकम
- हे कृष्ण करुणा-सिन्धो
- दीन-बंधो जगत-पते
- गोपेश गोपीका-कांत
- राधा-कांत नमो 'स्तु ते
- तप्त-कांचन-गौरांगी
- राधे वृंदावनेश्वरी
- वृषभानु-सुते देवी
- प्रणामामि हरि-प्रिये
- श्री-कृष्ण-चैतन्य
- प्रभु-नित्यानंद
- श्री-अद्वैत गदाधर
- श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृंद
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण
- कृष्ण कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम
- राम राम हरे हरे
ऋषभ उवाच
- नायं देहो देह-भाजां नृलोके
- कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजां ये
- तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्
- शुद्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम
(श्री. भा. ५.५.१) कल सदाशिव राजगीर जी से बात-चीत हुई थी की ऋषबदेव जो उपदेश दिया था उनके लड़कों को रिटायर करने के पहले। पहले सब बड़े-बड़े राजा लोग रिटायर करते थे। ये वैदिक सभ्यता है। ये नहीं की जब तक गोली से न मार दिया जाये, वो रिटायर नहीं करेगा। ये बात नहीं थी। एक समय रिटायर करने का है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास, ये जो हिन्दू धर्म का नाम से चलता है। ये शब्द जो हिन्दू है, ये कोई वैदिक भाषा में है नहीं। हमारा शास्त्र में जो है, वो वर्णाश्रम धर्म है। चार वर्ण और चार आश्रम। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। ये वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से जीवन सफल होता है। एहि वैदिक सिद्धांत है।
- वर्णाश्रमाचार-वता
- पुरुषेण परः पुमान
- विष्णुर आराध्यते पन्था
- नान्यत् तत्-तोष-कारणम्
याने ये मनुष्य समाज का सभ्यता जो शुरू होती है वो वर्णाश्रम से। वर्णाश्रम धर्म जब तक पालन नहीं करेगा तो वो समाज पशु समाज है। कोई मनुष्य समाज नहीं माना जाता है।
- वर्णाश्रमाचार-वता
- पुरुषेण परः पुमान
ये वर्णाश्रम धर्म के अनुसार, भगवान भगवद-गीता में ये बताया है चातुर-वर्ण्यं मया सृष्टम् गुण-कर्म-विभागशः जो भगवान जो चीज़ बनाया है चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्, गुण कर्म विभागशः गुण और कर्म के अनुसार, जन्म के अनुसार नहीं। वो कैसा आप उठा देंगे; उसको उठाने से फिर मनुष्य समाज ही नहीं रहेगा। पशु समाज हो जायेगा। तो महाराज ऋषबदेव जिंको हिन्दू, याने वर्णाश्रम धर्म ही जो है, तो भागवत में मानते ही हैं। कल सुना जैन लोग भी मानते हैं ऋषबदेव को, जैन। तो चाहे जैन होए, हिन्दू होए, उनका जो उपदेश है सब के लिए है। जैन होए, हिन्दू होए, मुस्लमान होए, कर क्रिस्चियन होए, क्यूंकि भागवत उपदेश जो है वो सब के लिए है। जैसे भगवान भगवद-गीता में कहते हैं "अन्नाद भवन्ति भूतानि" जो अन्न पैदा करने से चाहे जानवर होए, चाहे मनुष्य होए, सबलोग सुखी हो जायेंगे। तो ये जो अन्न उत्पादन करना, सबको सुखी बनाना, ये हिन्दू लोग के लिए भी है, मुसलमान के लिए भी है, जैन के लिए भी है, सब के लिए है। तो भागवत वचन जो है, भगवान तो एक ही है, और उनका जो वचह्न है वो सब के लिए है। ये नहीं है की जो केवल हिन्दू के लिए है, मुसलमान के लिए है, नहीं। ये जो मुसलमान का भगवान और हिन्दू का भगवान, ये सब अलग-अलग नहीं होता है, भगवान तो एक ही है "एक ब्रह्मा द्वितीय नाही"। जैसा सोना है; सोना हिन्दू के पास रहने से क्या हिन्दू सोना हो जायेगा या मुसलमान के पास क्या मुसलमान सोना हो जायेगा? सोना सोना है। वो चाहे हिन्दू के पास रहे चाहे मुस्लमान का पास रहे, जैन का पास रहे। तो इसी प्रकार धर्म जो है "धर्मं तू साक्षाद भागवत प्रणीतं" धर्म कोई सेक्टेरियन नहीं हो सकता क्यूंकि धर्म का सूत्र भागवत में बताया है की "धर्मं तू साक्षाद भागवत प्रणीतं"। जैसे राजा का क़ानून होता है वो क्या हिन्दू के लिए होता है, मुस्लमान के लिए होता है, क्रिस्चियन के लिए होता है, सब के लिए होता है। इसी प्रकार धर्म का जो सूत्र, जो क़ानून भगवान बना देता है वो सब के लिए है। ऐसी बात नहीं है की कोई सेक्टेरियन विशेष समाज के लिए, देश के लिए, पात्र के लिए, नहीं। सब के लिए है। तो "धर्मं तू साक्षाद भागवत प्रणीतं"। तो इधर भी ऋषबदेव वो भगवान का अवतार है, वो अपने पुत्र को शिक्षण दे रहे हैं की बीटा 'अयं देह'
:नायं देहो देह-भाजां नृलोके
- कष्ठान् कामान अरहते विद-भुजां ये
मई पुत्र ये जो शरीर है, थिस बॉडी, ये हो शरीर है, मनुष्य शरीर, शरीर सभी का होता है, कुत्ता का भी होता है, सूअर का भी होता है, गधा का भी होता है और मनुष्य का भी होता है, बाकि विशेष करके कहते हैं ये जो शरीर है अयं देह, थिस बॉडी, ये शरीर, कौन शरीर देह-भाजां नृलोके, नृलोके, मनुष्य समाज में जो शरीर है वो शरीर कष्ठान् कामान न अरहते विद-भुजां ये, बहुत कष्ट करके ये शरीर का जो चाहिदा है, आहार, निद्रा, भय, मैथुनम, चार चीज़ शरीर का चाहिदा है कुछ खाने के लिए चाहिए, सोने का कुछ जगह होना चाहिए अपार्टमेंट, आहार निद्रा भय और भय से बचाने के लिए कुछ बंदोबस्त होना चाहिए, डिफेंस और मैथुन, इन्द्रिय तर्पण, विशेष करने यौन संपर्क। ये चार चीज़ सबके के लिए जरूरत है। कुत्ता का भी जरूरत है और आदमी का भी जरूरत है।
- आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च
- सामान्यं एतत् पशुभिर नराणां
आहार-निद्रा-भय-मैथुनं, ये चार चीज़ सबके लिए जरूरत है। चाहे कुत्ता का शरीर होय या मनुष्य का शरीर होय। परन्तु कुछ प्रबध तो होना चाहिए मनुष्य का शरीर और जुटता का शरीर, तो ये ही बता रहे हैं 'नायं देहो देह-भाजां नृलोके' ये जो मनुष्य सामान में शरीर मिला है वो 'कष्ठान् कामान न अरहते विद-भुजां ये' और ये जो सूअर कुक्कर दिन भर परिश्रम करके जो अपना शरीर का जो चाहिदा है उसको मिटाते हैं, मनुष्य शरीर में ये नहीं होने चाहिए। मनुष्य शरीर में नहीं होने चाहिए; इसलिए मनुष्य शरीर में प्रकृति, उनका जो टेन्डेन्सी है की कुछ रूपया कमा कर के स्थिर होकर के बैठ के उसको भोग करें। ये कुत्ता का शरीर, गधा का शरीर, ये संभव नहीं है। उनको तो जब तक जीवन रहेगा तब तक उसको परिश्रम करने पड़ेगा और तब उसको शरीर का चाहिदा मिटेगा। इसलिए मना करते हैं जो आयम देह, ये जो विशेष शरीर है मनुष्य शरीर ये इतना परिश्रम करके शरीर का जो चाहिदा मिटाना है वो तो सूअर गधा के लिए है मनुष्य के लिए नहीं, ये बताते हैं। मनुष्य शरीर के लिए इतना परिश्रम करके क्यों केवल शरीर का चाहिदा मिटाना, ये उचित नहीं है। तो मनुष्य के लिए क्या उच्चित है बताते हैं तपो दिव्यम मनुष्य शरीर है तपस्या के लिए। केवल परिश्रम करके दिन-रात, नाईट शिफ्ट, डे शिफ्ट और मरने का समय तक, अल्टीमेट एन्ड ऑफ़ लाइफ, इतना परिश्रम करके ये उचित नहीं है। मनुष्य शरीर कुछ तो समय केवल तपस्या करने के लिए वो रखना चाहिए। इसलिए मनुष्य समाज में ये वर्णाश्रम धर्म का विचार है की ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास, कम-से-कम शरीर छोड़ने का पहले वो वानप्रस्थ और संन्यास तो ग्रहण करें और तपस्या के लिए तपो दिव्यं पुत्रका येन, तपस्या का ज़रुरत क्या है, क्यों तपस्या करें? 'तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम् शुद्धयेद' ये जो सत्ता है सब कोई चाहते हैं की है तो जीव मात्र ही 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'। शरीर नष्ट हो जाने से जीव नष्ट नहीं होता है।
- देहिनोऽस्मिन् यथा देहे
- कौमारं यौवनं जरा
- तथा देहान्तर-प्राप्तिर
ये शरीर नष्ट हो जाने से फिर देहान्तर प्राप्ति होगी और एक शरीर मिलेगा। उदहारण स्वरुप 'अस्मिन देहे तथा कौमारं यौवनं जरा' जैसा ये शरीर में बच्चा रहता है फिर कुमार होता है फिर जवान होता है फिर बुड्ढा होता है फिर बुड्ढा होने के बाद मरण होता है तो वो जो मरण के बाद तथा देहान्तर प्राप्ति। जैसा शुरू से बच्चा शरीर से बालक शरीर, बाळक शरीर से यौवन शरीर, यौवन शरीर से बुड्ढा शरीर, इसी प्रकार ये शरीर छूट जाने से और एक शरीर मिलेगा।
- तथा देहान्तर-प्राप्तिर
- धीरस तत्र न मुह्यति
तो इसीलिए क्या शरीर हमको मिलेगा आगे जाकरके उसके लिए तपस्या करना है। और नहीं तो वोही
- जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-
- दुःख-दोषानुदर्शनम्
एक शरीर छोड़ करके और एक शरीर ग्रहण करने पड़ेगा फिर वो शरीर में जो कर्म-बंधन है उसको भोगने पड़ेगा फिर शरीर छोड़ने पड़ेगा, फिर लेने पड़ेगा, ये चालू रहेगा। ये शिक्षण पहले होना चाहिए की हमको शरीर छोड़ने है तथा देहान्तर-प्राप्तिर, और छोड़ करके क्या शरीर मिलेगा हमको उस विषय में तैयार होना है। ये अगर नहीं करते हैं तो ये मनुष्य जीवन जो हमको मिला है नृलोके ये वृथा, विफल हम उसको बिताते हैं। ये जो सिविलाइज़ेशन है ये ठीक नहीं है। ये पुत्र को उपदेश दे रहे हैं ऋषबदेव की 'तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम् शुद्धयेद' प्यूरीफाई योर एक्सिस्टेंशियल आइडेंटिटी, प्यूरीफाई। तो प्यूरीफाई, व्हाई प्यूरीफाई? उसको शुद्ध-शुद्ध किया जाये न 'यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम'। हमलोग सभी सुख चाहते हैं । इतना जो हमलोग स्ट्रगल करते हैं शरीर लेकर स्ट्रगल फॉर एग्जिस्टेंस, उसका उद्देश्य क्या है? सुख बाकि ये जो शरीर छोड़ने पड़ता है, तो सुख कहाँ है? बाकि हमलोग माया का वश होकर के उसी को सुख मानते हैं बाकि शास्त्र कहते हैं ये सुख नहीं है। सुख तो पहले तुम इसको जय करो जन्म मर्त्यु जरा व्याधि इसको जय करो फिर तुमको सुख मिलेगा। तो ये ऋषबदेव का उपदेश है की हमलोग को ये शरीर छोड़ने पड़ेगा और शरीर छोड़ने के पहले जो हमारा सत्ता है, जीवन है उसको शुद्ध करना चाहिए। 'सत्त्वम् शु'द्धयेद यस्माद ब्रह्म-सौख्यं त्व अनंतम' इसमें हमको सुख मिलेगा, आनंद। 'सच्चिदानंद विग्रह' 'ममैवांशो जीव भूतो', भगवान भगवद-गीता में बता रहा हैं जो जीवात्मा हमारा अंश है और भगवान का रूप क्या है
- ईश्वरः परमः कृष्णः
- सच्चिदानंदविग्रह:
- अनादिर आदिर गोविंद:
- सर्व-कारण-कारणम
जो भगवान जो हैं उनका शरीर है, सच्चिदानंदविग्रह, ये शरीर नहीं है, जैसा आपलोग का शरीर है ध्वंस होने वाला, भगवान का ऐसा शरीर नहीं है। हमलोग समझते हैं की कृष्णा हमारे जैसा ही कोई व्यक्ति है। अवाजानन्ति मां मूढ़ा मानुशीम तनुं आश्रितः वो समझते हैं की अब कृष्णा मनुष्य शरीर से आते हैं। तो ये लोग मुर्ख होते हैं, मूढ़ा वो अवाजानन्ति बाकि भगवान का शरीर सच्चिदानंदविग्रह। परम भावं अजानन्तो तो ये जानते नहीं की भगवान का शरीर इस तरह से होता है। वो भगवान जो सच्चिदानंदविग्रह है भगवान खुद कहते है की ममैवांशो जीव भूतः ये जितने भी जीव हैं सब हमारा अंश है। तो वो भी सच्चिदानंदविग्रह है। सत का अर्थ होता है इटरनल, 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे' शरीर नष्ट हो जाने से आत्मा नष्ट नहीं होता है, उसका नाम है सत ॐ तात सत। और सत चित, चित का अर्थ होता है ज्ञान। ज्ञानवान, नित्य ज्ञानवान और आनंदमय, ये हमारा स्वरुप है। तो मुक्ति का अर्थ होता है 'स्वरूपेण अवस्थिति'
- मुक्तिर हित्वान्यथा-रूपम्
- स्वरूपेण व्यवस्थित
मुक्ति का अर्थ होता है ये जो अभी हमारा अन्यथा रूप है सच्चिदानंद विग्रह नहीं है मरने वाला है, नित्य नहीं है, और अज्ञानमय है और निरान्दमय है ये शरीर छोड़ करके जब सत-चित-आनंद हमको मिलेगा उसकी नाम है मुक्ति। 'मुक्तिर हित्वान्यथा-रूपम्' अभी अन्यथा रूप है तो इसलिए तपस्या करनी चाहिए। ये मनुष्य जीवन है। तपो तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम् शुद्धयेद। सत्ता को शुद्ध करना चाहिए। भगवान कहते है
- जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-
- दुःख-दोषानुदर्शनम्
असल में तुम्हारा दुःख क्या है? असल दुःख एहि है जो बार-बार हमको जन्म लेने पड़ता है, बार-बार हमको मरने को पड़ता है और शरीर लेने से ही हमको वृद्धा अवस्था ग्रहण करने पड़ता है और व्याधि भी होता है उससे भी, त्रिताप जंत्र आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक, तो क्यूंकि वर्णाश्रम धर्म का विचार नहीं है, सब छोड़ दिया हमलोग। इसलिए असल क्या दुःख है हमलोग नहीं समझते हैं। तात्कालिक दुःख को मिटाने के लिए हमलोग सब परिश्रम करते हैं। वो तो पशु भी करता है, तात्कालिक। भूख लगा है, देखो जी कहाँ खाने को मिलेगा। वो सूअर जो है वो देखता है कहाँ स्टूल मिलेगा और मनुष्य दौड़ता है कहाँ रेस्टोरेंट है, कहाँ होटल है। बात एक ही है परिश्रम करके केवल खाने के लिए शास्त्र में कहते हैं खाने का चीज़ हमारा मौजूद है। उसके लिए तुमको परिश्रम करने का कोई ज़रुरत नहीं है।
- तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो
- न लभ्यते ब्रह्मताम उपरि अदाः
भगवान सब के लिए खाने का कहीं-न-कहीं निश्चित करके रखा ही है। हमलोग तो ह्यूमन सोसाइटी है, बिज़नेस करते हैं खाने के लिए। बाकि चौरासी लाख योनि जो है, उसमें ८०,००० तो केवल पशु, जानवर ये ही सब होते हैं। उनके लिए सब भगवान खाने को देता है; हाथी को देता है, चीटी को भी देता है, और हमको क्यों नहीं देगा? वो खाने के लिए शास्त्र कहते हैं तो ये जो चार चीज़ है "विषय: खलु सर्वस्तस्य" विषय का अर्थ होता है ये जो आहार निद्रा भय मैथुन, ये कहीं भी तुम्हारा जन्म होगा वो तुम्हारा वास्ते ठीक-ठाक। उसके लिए कोई ज़्यादा परिश्रम करने का ज़रुरत नहीं है। : "तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो न लभ्यते ब्रह्मताम उपरि अदाः"। बाकि ये जो भगवान से हमारा संपर्क छूट गया है, उसके लिए कोशिश करना चाहिए की किस तरह से फिर से हमारा भगवान से संपर्क बनेगा। अगर भगवान से हमारा संपर्क फिर बन गया। "त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति माम् एति सो अर्जुन", ये सब विचार है। ये जो हमारा कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट है हमलोग एहि बात समझा रहें हैं। जो ये बात हमलोग नहीं कहते हैं की ये शरीर यात्रा, ये जो कर्म करना है ये सब छोड़-छाड़ दिया जाये। नहीं, ये बात नहीं है। असल जो उद्देश्य है उसको भूलना नहीं। मनुष्य जीवन का एहि उद्देश्य है। जो भगवान से हम संपर्क को छुड़ा दिया है। उसलिए हमारा नहीं।
- कृष्ण भुलिया जीव भोग वांछा करे
- पाषते माया तारे झापटिया धरे
ये वैष्णव कवी में बताया है की जब हम कृष्ण को भूल जाते हैं, भगवान को भूल जाते हैं और केवल दुनिया को भोग चाहते हैं, तो उसमे उसी का नाम है माया। माया और कुछ नहीं। माया का अर्थ होता है जो चीज़ असल में है नहीं। ये भगवान को भूल जाना ये ही माया है। इसलिए भगवान कहते हैं
- माम् एव ये प्रपद्यन्ते
- मायाम एताम् तरन्ति ते
माया से छुट्टी लेने के लिए कोई मुश्किल बात नहीं है। केवल भगवान को स्वीकार किया जाये माया उसी वक्त भाग जाएगी।
- सर्व-धर्मान् परित्यज्य
इसलिए भगवान इतना सब अपना वैकुण्ठ छोड़ करके, गोलोक वृन्दावन छोड़ करके इधर आते हैं "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानीर" वो ग्लानीर क्या चीज़ है ज भगवन को नहीं मानते हैं। नास्तिक, भगवान क्या है, हम भगवान हैं ये जो नास्तिकवाद है ये धर्म का ग्लानीर। तो इसलिए भगवान खुद आते हैं। "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानीर भवति" क्यूंकि धर्म क्या चीज़ है "धर्मं तू साक्षात भागवत प्रणीतं" भगवान जो बात कहते हैं वो ही धर्म है। भगवन बोलते हैं
- सर्व धर्मान परित्यज्य
-मां एकम शरणं व्रज तो ये ही धर्म है। सर्व धर्मान परित्यज्य ये जो हिन्दू, मुसलमान ये सब धर्म हम बनाये हैं, ये तो मैन-मेड है। मनुष्य बनाया है। भगवान कहते हैं "सर्व धर्मान परित्यज्य मां" भगवान कोई हिन्दू, मुसलमान, क्रिस्चियन धर्म को बताने के लिए नहीं आते हैं। ज असल धर्म जो है भगवान का चरण में शरणागति उसको बताने के लिए आते हैं। और जो भागवत भक्त है, इसी को प्रचार करते हैं। भागवत भक्त जो है वो क्या धर्म प्रचार करते हैं? वो कोई ऐसा बना-बना करके न्यू पैटर्न ऑफ़, वो नहीं प्रचार करते हैं। जो भगवान बोलते हैं उसी को प्रचार करते हैं। इसीलिए भगवान कहते हैं
- एवं परम्परा-प्राप्तम्
- इमं राजर्षयो विदुः
ये परंपरा से है। जो बात भगवान बताये हैं उसके बाद भगवान से ब्रह्माजी सीखा ये बताते हैं और ब्रह्माजी से नारदजी सीखा और नारद भी बताते हैं और नारदजी से व्यासदेव सीखा है औअर व्यासदेव भी वोही बताते हैं "सत्यम परम धीमहि" "जन्माद्य अस्य यतो 'न्वयाद इतरतच चार्थेश अभिज्ञान: स्वराट" और व्यासदेव का परंपरा से हमलोग हैं; मध्वाचार्य हैं, चैतन्य महाप्रभु हैं , वो ही बात बताते हैं। वो एक ही बात कोई न्यू मैनुफ़ैक्चर नहीं है। वी डोंट मैनुफ़ैक्चर। थिस इस दी स्पेशल फीचर ऑफ़ कृष्णा कॉन्शियसनेस्स मूवमेंट। वी डोंट मैनुफ़ैक्चर। भगवान बताते हैं :मन-मना भव मद-भक्तो
- मद याजी मां नमस्कुरु
हम एहि तो करते हैं। सबको कहते हैं की देखो जी सब समय भगवान का चिंतन करो।
- हरे कृष्ण हरे कृष्ण
- कृष्ण हरे हरे
- हरे राम हरे राम
- राम राम हरे हरे
इसी में भगवान का चिंतन होता है।
- श्रवणं कीर्तनं विष्णुः
- स्मरणं पाद-सेवनम्
- अर्चनं वंदनं दास्यम्
- सख्यम् आत्म-निवेदनम्
ये भगवद भक्ति है। कोई दूसरी बात नहीं बताते हैं। ये भगवान नहीं है, हम भगवान हैं, तुम भगवान है, भगवान का चल रहा है, ये सब झूट बात नहीं बताते हैं। असल बात बताते हैं। क्या? भगवान कृष्ण कहते हैं 'मन-मना भव मद-भक्तो'। भगवान खुद कहते हैं सब समय हमारा चिंतन करो और हमलोग क्या कहते हैं की भगवान का चिंतन करो। बात एक ही है, कोई दूसरी बात नहीं है। इसका नाम है परंपरा। हमारा चिंतन करो, हम नहीं यदि ऐसा समझेंगे की हमारा चिंतन करो। मई हेड मीन्स मई हेड, नो-नो-नो नॉट आई हेड युर हेड। तो एहि कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट है। कृष्ण भावनामृत। की भगवान जो बताते हैं हम वोही बताते हैं। ये भागवत में भगवान बताते हैं और भगवद-गीता में भगवान बताते हैं। भगवद-गीता में स्वयं भगवान बताते हैं और भागवत में व्यासदेव भगवान का विषय बताते हैं। चीज़ एक ही है, कोई फरक नहीं है। ये चैतन्य महाप्रभु का मिशन है की "जारे दाखो तारे कहो कृष्ण उपदेश" चैतन्य महाप्रभु का मिशन। और कुछ नहीं। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की "आमार आज्ञा गुरु हना तारा' एइ देश' जिस देश में आपलोग रहते हैं; आपलोग मुंबई में रहते हैं, ये लोग कोई न्यू यॉर्क में रहता है कोई लंदन में रहता है तो हमारा प्रचार का विषय क्या है? "आमार आज्ञा गुरु हना तारा' एइ देश' चैतन्य महाप्रभु कहते हैं हमारी आग्न्या से तुमलोग सब गुरु बन जाओ। तो गुरु कैसा हम बने, हम तो कोई शिक्षित व्यक्ति है नहीं, और हम बिज़नेस करते हैं, हम गुरु कैसे बने? नहीं कोई मुश्किल नहीं है। क्या है "जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश" किसीसे मिलते तो हैं, उसी से उसको बताओ जो केवल भगवान कृष्ण बताया है। चैतन्य महाप्रभु के हिसाब से गुरु होना कोई मुश्किल बात नहीं है। हाँ, यदि वो मैनुफ़ैक्चर न करें। ज़्यादा उस्ताद जी न बने, तो गुरु होना कोई मुश्किल नहीं है। केवल भगवान तो बताया है सब कुछ उसको खली रिपीट करो। "जारे देखो तारे कहो कृष्ण उपदेश"। ये हमलोग का मिशन है और आपलोग सबसे निवेदन एहि है जो ज़्यादा इधर-उधर बात बोलने से कुछ फायदा नहीं होगा, न आज तक हुआ है और न होगा। केवल कृष्ण जो बोला है वो बोलिये। उसको सीखिए और उसको दुसरे को बोलिये और उसको सिखाइये। जीवन धन्य हो जायेगा। इसलिए भगवान कहते हैं जो "तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम् शुद्धयेद" यदि सत्ता शुद्ध करना है; सत्ता शुद्ध करने का मतलबा क्या होता है जन्म मृत्यु से छुट्टी। ये सत्ता शुद्धि। और जन्म मृत्यु नहीं होगा। भगवान खुद कहते हैं
- जन्म कर्म च मे दिव्यम्
- एवं यो वेत्ति तत्वतः
- त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म
नैति माम् एति सो अर्जुन बड़ा सरल है और भगवान का जन्म कर्म समझना कोई मुश्किल नहीं है। भगवान कहते हैं, खुद बताते हैं
- अहं सर्वस्य प्रभवो
- मत्तः सर्वं प्रवर्तते
- इति मत्वा भजन्ते माम्
- बुधा भाव-समन्वित:
तो ये जो ज्ञान है की भगवान ही सब कुछ है "वासुदेव सर्वं इति स महात्मा सुदुर्लभः" वो महात्मा बड़ा सुदुर्लभ है। और वो ज्ञान कब मिलता है "बहुनाम जन्मनाम अन्ते" ये जो बात बोलते-बोलते अनेक जन्म बीत जाने से जब वास्तविक उसका दिमाग ठीक होता है की वासुदेव सर्वं इति, भगवान वासुदेव ये ही सब कुछ है। है भी, भगवान खुद बताते हैं
- मत्तः परतरं नान्यत
- किंचिद अस्ति धनञ्जय
वेदांत सूत्र में ""जन्मादी अस्य यतह" और उसको व्याख्यान करते हैं श्रीमद भागवत
- जन्माद्य अस्य यतो 'न्वयद इतरत्स चार्थेष्व अभिज्ञा: स्वराट
- तेने ब्रह्म हृदा,
ये सब शास्त्र में है ये कृष्णा उपदेश। ये भगवद-गीता भी कृष्णा उपदेश है, स्वयं कृष्णा बता रहे हैं और श्रीमद भगवद भी कृष्णा उपदेश है व्यासदेव स्वय कृष्णा का विषय बता रहे हैं "परम सत्यम धीमहि" तो सभी हमलोग अपना पूर्व इतिहास के अनुसार जो हमलोग सृष्टि को फिर लाने चाहते हैं। तो मौजूद है बाकि हमलोग जानते नहीं और जानते भी हैं तो उसको प्रचार नहीं करते हैं।
- न ते विदुः स्वार्थ-गतिम् हि विष्णुम्
- दुराशया ये बहिर-अर्थ-माणिनः
ये बाहरी चीज़ से हमलोग सब एडजस्ट करने को चाहते हैं, संघटन करने को चाहते हैं, उसमे कुछ फल नहीं होगा।
- अन्धा यथान्धैर उपनीयमानास
- ते 'पीश-तंत्र्यां उरु-दामनी बधः'
ये जो अंधे लोग है समझते है की और दुसरे अंधे को हम लीड करेंगे तो उसमे कुछ फल नहीं होगा क्यूंकि 'पीश-तंत्र्यां उरु-दामनी बधः'। भगवान के कानून से हाथ पाँव सब बंधा हुआ है, इंडेपेंडेंटली कुछ काम नहीं हो सकता है।
- प्रकृतेः क्रियमाणानि
- गुणैः कर्माणि सर्वशः
- अहंकार-विमूढ़ात्मा
- कर्ताहं इति मन्यते
प्रकृति का कानून से नेचरस लॉ हाथ पैर सब बंधा हुआ है। कोई एक भी उससे बहार नहीं जा सकता है। जब प्रकृति बोलेगा आज तुमको मरना है किसी भी बाप का कोई इख्तियार नहीं है; कोई डॉक्टर नहीं कोई साइंटिस्ट एक मिनट भी बचा नहीं सकता है। "मृत्यु सर्व हरस चाहं" भगवान कहते हैं। यदि कोई हमको नहीं समझा है तो मरने के बाद हमको जरूर समझेगा। जब उनक सब चीज़ हम छीन लेंगे। ये सब विचार है इसलिए ऋषबदेव बताते हैं जो बेटा "ये जो मनुष्य जीवन है ये कुत्ता का ऐसे और सूअर के जैसे खाली दिन भर परिश्रम करना औअर जहाँ थोड़ा बल हुआ और इन्द्रिय तर्पण करना, ये मनुष्य जीवन का कर्त्तव्य नहीं है। मनुष्य जीवन का कर्त्तव्य जो है की उसको तपस्या द्वारा, तपस्या, तपस्या का अर्थ होता है जो चीज़ हमको पसंद होता है उसको छोड़ देना। इसका नाम है तपस्या। तपस्या का मने जैसे हम बीड़ी फूंकते हैं औअर उसका हम बोले की बीड़ी छोड़ दीजिये तो जरूर कुछ तकलीफ होगा तो वो तकलीफ सहन करने पड़ेगा। उसको नाम है तपस्या। हम शराब पीते हैं। शराब पीना छोड़ देने से हमको तकलीफ होगा बाकि भगवान के लिए यदि हम शराब छोड़ देते हैं उससे कुछ तकलीफ होता है ये तकलीफ को सहन करना पड़ेगा। इसका नाम है तपस्या। "तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वम्" दिव्यं का अर्थ होता है डिवाइन। भगवान के लिए कुछ तपस्या करो। इसलिए हमलोग बताते हैं ये यूरोप अमेरिका जहाँ-जहाँ सब हमलोग प्रचार करते हैं की देखोजी ये चार चीज़ आपलोग छोड़ दीजिये, तपस्या कीजिये। क्या? नो इल्लिसिट सेक्स, अवैध स्त्री संघ नहीं करना, अपना विवाहित स्त्री छोड़ करके प्रत्येक स्त्रीय को अपनी माता के जैसे समझना। ये मामूली चाणक्य पंडित का विचार है। ये पंडित कौन है? ये चाणक्य पंडित का नाम आप सुने होंगे। ये चाणक्यपुरी आपका न्यू दिल्ली में है। बड़ा पॉलिटिशियन, उनका मोरल इंस्ट्रकशन है। निति वाक्य। वो कहते हैं। पंडित किसको कहा जायेगा? जो यूनिवर्सिटी में गया बी ए, म ए, पी हेच डी डिग्री सब लाके उसको पंडित कहा जायेगा? नहीं, चाणक्य पंडित कहते हैं नहीं। वो पंडित नही। पीर किसको कहा जायेगा? "मातृवत् परदारेषु" जो दुसरे स्त्री को अपना माता का जैसे समझते हैं वो पंडित है।
- मातृवत पर-दारेषु
- पर-द्रव्येषु लोष्ट्रवत
- आत्मवत् सर्व-भूतेषु
- यः पश्यति स पंडितः
ये चाणक्य पंडित, वो भी पंडित और कौन पंडित है उसका डेफिनिशन बताया है। तो इसलिए ये अवैध स्त्री। स्त्री चाहिए, ये हमारा वर्णाश्रम धर्म में विवाहित स्त्री। भगवान कहते हैं की "धर्म विरुद्ध कामो स्मि" जो धर्म का अविरुद्ध काम है, वो नहीं। केवल पुत्र प्राप्त करने के लिए ये जो स्त्री का संघ है वो धार्मिक है और इसके अलावा वो अवैध स्त्री संघ है। इल्लिसिट सेक्स, उसको छोड़ना चाहिए। इसका नाम है तपस्या। अवैध स्त्री संघ छोड़ना चाहिए और सुना पान और मांस भक्षण। हमलोग मनुष्य हैं। हमारे लिए भगवान कितने चीज़ बनाया है; ग्रेन्स बनाया है, फ्रूट्स बनाया है, दूध, दोष से कितना चीज़। ये सब हमलोग खाएंगे न मांस खाएंगे? ये महापाप है। इसलिए बताते हैं की इसको छोड़ दो। इसके छोड़ने से अगर तुम्हारा कुछ तकलीफ होता है तो उसको सहन करो उसका नाम है तपस्या। तो चार चीज़ ये लोग को छुड़ा दिया। ये अवैध स्त्री संघ जो की उनका दैनिक काम; दैनिक काम है। बाकि भगवान के लिए ये छोड़ दिया। अवैध स्त्री संघ छोड़ दिया है और मांस, मछली, अंडा ये सब छोड़ दिया है और शराब पीना तो छोड़ दिया ही है, बीड़ी भी छोड़ दिया है, सिगरेट भी छोड़ दिया है और चाय भी छोड़ दिया है। अवैध स्त्री संघ और सुना पान, इसका अर्थ होता है चाय पान, ये पान खाना वो भी नशा है। ये सब तपस्या है, छोड़ देना चाहिए। अवैध स्त्री संघ, मांसाहारी भक्षण और नशावाद और जुआ खेलना। इतना ही तपस्या है, ज़्यादा नहीं। वन जंगल में जाना नहीं पड़ेगा।
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