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730108 - Lecture SB 01.02.06 Hindi - Bombay

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



730108SB-BOMBAY - January 08, 1973 - 58:25 Minutes



Prabhupāda:

. . .ahaituky apratihatā
yayātmā suprasīdati
(SB 1.2.6)

Hindi Transcript

“अहैतुकी अप्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति” कल हमलोग ये श्लोक की व्याख्या पर रहा था की पुंसां, मनुष्य के लिए परो धर्म जो है उसको ही ग्रहण करना चाहिए। परा और अपरा। अपरा का अर्थ होता है निकृष्ट, हाँ और परा का अर्थ होता है उत्कृष्ट।अभी जो हमारी अवस्था है निकृष्ट और उत्कृष्ट मिश्र, क्योंकि ये जो शरीर है ये निकृष्ट, और आत्मा जो है ये उत्कृष्ट है। ये जो भगवान भगवद-गीता में बताते हैं, “भूमिर आपो ‘नलो वायुः खं मनो बुद्धिर एव च अहंकार इतियम् मे भिन्न प्रकृति अष्टधा” “अपरेयम् इतस तव अन्यम् प्रकृतिं विद्धि मे पराम” तो भगवान ये दुइ प्रकार की प्रकृति अपरा और परा। जब अपरा प्रकृति में मैं आकृष्ट रहता हूँ, उस समय जो धर्म मैं याजन करता हूँ, वो अपरा। जैसे हमलोग समझते हैं की हमारा हिन्दू धर्म। कोई समझता है की हमारा धर्म मुस्लमान धर्म, क्रिस्चियन धर्म। कोई समझता है की हमारा धर्म है देश की सेवा, देश धर्म।। कोई समझता है हमारा समाज की सेवा ये हमारा धर्म है। तो ये जितने सब धर्म हैं, क्यूंकि ये शरीर से सम्पर्कित हैं, ये सब अपरा। निकृष्ट धर्म। तो निकृष्ट धर्म में रहने से ठीक धर्म जागरण होता नहीं। इसको शास्त्र में कहते हैं कैटव धर्म। कैटव का अर्थ होता है छलना, चीटिंग। भागवत में पहले ही कह दिया की "धर्म प्रोजिता अत्र कैटव। तो ये जितना चीटिंग धर्म है, छलना-पूरक धर्म है, धर्म के नाम से चलता है, असल में धर्म नहीं है। पहले थोड़ा समझिये की ये धर्म किसको कहा जाता है। शास्त्र में कहते हैं "धर्मं तू साक्षात् भागवत प्रणीतं"। धर्म जो भगवान की वाणी है, भगवान का जो हुक्म है, वो है धर्म। क्या? जैसे भगवद गीता में कहते हैं हम भगवान का अंश हैं "ममैवांशो जीव भूत"। जैसे कई दफे आपलोग के सामने प्रस्तुत किया की जैसे हमारा ऊँगली है ये शरीर का अंश है और मैं चाहता हूँ की हम भी थोड़ा सर को खुजलाओ। हम इसी वक्त शुरू करो। पैर में थोड़ा ऐसा करो। की जब तक ये अंश का उचित है, उसका हुक्म मानना। और भी बहुत सारा उदहारण हो सकता है। जैसे गवर्नमेंट कुछ हुक्म दिया; आपका विधान सभा में, सभापति जो हुक्म देगा उसको मानना पड़ेगा। इसी प्रकार कोई कानून है। तो धर्म का अर्थ होता है जीसको आप छोड़ नहीं सकता; आप ऐसा नहीं कर सकते हैं गवर्नमेंट का कानून नहीं मानता। नहीं, फिर आप तकलीफ में पढ़ सकते हैं। किया है गवर्नमेंट शासन कर। तो क्यों गवर्नमेंट शासन करे? धर्म क्या चीज़ है? धर्म ही चीज़ है जो भगवान बना दिया, उसका नाम ही है धर्म। जैसा भगवान बना देते हैं। जैसा इमली है; वो खटाई, और चीनी है, वो मिठाई है, ये भगवान बनाया है। पानी जो है वो तरल है। और पत्थर जो है वो कठिन है। ये कौन बनाया, भगवान बना दिया। तो पत्थर है और कठिनता है नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। जहाँ पत्थर रहेगा वहां कठिनता रहेगा। जहाँ पानी रहेंगी, उधर तरलता रहेंगी। जहाँ अग्नि है, उधर ताप है, प्रकाश है। तो धर्म इसी प्रकार है। इसको समझने चाहिए। धर्म ये नहीं है मनमाफिक धर्म हम बना लिया। धर्म का अर्थ है क्या है? जो की जो चीज़ साथ-साथ में रहता है। जैसा की आपके हाथ में थोड़ा सा चीनी कोई दिया, आप जानते हैं इसका धर्म है मिठाई। अगर वो चीनी को आप आस्वादन करके देखते मीठा नहीं, क्या चीज़ है? क्योंकि वो धर्म नहीं है? इसी प्रकार समझना चाहिए ये जीवात्मा का धर्म क्या है? सब चीज़ का अलग अलग धर्म है। तो जीवात्मक जो है, भगवान का अंश है, उसको धर्म क्या है? अंश का धर्म है पूर्ण की सेवा। यही है। भागवत सेवा यही असल धर्म है। इसलिए शास्त्र में कहते हैं

“स वै पुंसाम परो धर्मो

यतो भक्तिर अधोक्षजे धर्म तो ऐसे बहुत से है। नारायण प्रकाश। बाकी वो सब शास्त्र में कहते हैं, ये सब चीटिंग धर्म। ये सब धर्म नहीं। इसलिए भगवान कहते हैं “सर्वधर्मान परित्यज्य मां एकम शरणम व्रज", क्योंकि वो चीटिंग धर्म में सब पड़े हुए हैं। इसलिए भगवान खुद आकर के उनको सीखा रहे हैं की ये धर्म है। भगवान क्यों आते हैं? “धर्म संस्थापनार्थाय” धर्म को संस्थापन करने के लिए। “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर् भवति भारत अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्” भगवान तो आते हैं धर्म संस्थापन करने के लिए। “परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृतम् धर्म-संस्थापनार्थाय युगे युगे संभवामि” तो भगवान तो आते हैं धर्म संस्थापन करने के लिए। ये भगवान का अर्थ होता है की वो धर्म स्थापन करने। अब फिर जाके भगवान कहते हैं की सर्व ‘धर्मान परित्यज्य’। देखिये भगवान धर्म की संस्थापन करने के लिए आए हैं, फिर सब धर्म को छोड़ने को क्यों कहते हैं? ये विचार करना। छोड़ने के लिए इसीलिए कहते हैं क्यों वो धर्म नहीं है, वो सब चीटिंग है। धर्म कैटव, कैटव मने छलना, चीटिंग। जिस धर्म में भगवद भक्ति सिखाया नहीं जाता, भगवान का चरण में शरनागति सिखाई नहीं जाता, वो चीटिंग धर्म। स्पष्ट बताते हैं "सवै पुंसां पारो धर्मो", वो ही श्रेष्ट धर्म है, उत्कृष्ट धर्म। जिस धर्म द्वारा भागवत भक्ति सिखाया जाये। हाँ, “यतो भक्तिर अधोक्षजे”। तो भक्ति का अर्थ होता है भगवान और भक्त और बीच में कार्यक्रम, उसका नाम है भक्ति। सब एकआकार नहीं। भगवान भी मौजूद है, भक्त भी मौजूद है, और भक्त से भगवान का जो कार्यक्रम है, उसके नाम है भक्ति। और वो भक्ति कैसी? अहैतुकि। ये भगवान हमको कुछ दे रहे हैं; भगवान को कुछ अदा करना है। इसलिए मैं भक्ति कर रहा हूँ। नहीं, वो शुद्ध भक्ति नहीं। भक्ति अहैतुकि, कोई है तो। हाँ भगवान हमारा प्रभु है। हमारा काम है भगवान की सेवा, ये शुद्ध भक्ति। हाँ, अहैतुकि, जैसा ये अंगुली। हमारा अंश है। हम 10 दिन इसको खाने को नहीं देंगे, बाकी सेवा करो। हम ये नहीं कहेंगे हमको खाने को नहीं दिया, हम सेवा नहीं करेंगे। नहीं। भगवान चाहे हमको किस अवस्था में रखे, हमारी काम है सेवा। हाँ। जैसा महाराज कुलशेखर मुकुंद माला स्तोत्र में कहते हैं “जब-जब तब-तब हरी” जो होने वाला है हमारा कर्म फल का अनुसार, वो होने दीजिए। वो हम परवाह नहीं करते। बाकी हमारा मन सब समय आपका चरण में अर्पित रहे, ये मैं चाहता हूँ। श्री चैतन्य महाप्रभुभी भी सीखा रहे हैं, "न धनं न जनम न सुन्दरीम कवितां वा जगदीश कामये" ये जो मंगलार्ति में गीत गाते हैं, जो ‘धन घर आवे जय जगदीश हरे’ जगदीश का भजन करके हमारा धन घर आये, ये शुद्ध भक्ति नहीं। ये अहैतुकि। मैं भगवान का आरती कर रहा हूँ, भजन कर रहा हूँ, कीर्तन कर रहा हूँ इसलिए हमको धन धार आवे। ये शुद्ध भक्ति नहीं है, ये विद्या भक्ति है।। ज्ञान कर्म का अशेष है। कर्मी लोग जैसा कुछ प्रॉफिट मांगता है। इतना परिश्रम करते हैं ये कर्मी लोग, उसका कुछ प्रॉफिट न हो, लाभ न पाएं, तो वो कहते हैं बेकार का काम है, क्या लाभ। लेकिन भक्ति जो है इस प्रकार भौतिक प्रॉफिट लाभ करने के लिए, भौतिक लाभ करने के लिए नहीं। ये हमारा पैसा अभी ₹1000 है। भगवान की भक्ति करक मैं 10,000 कर लूँगा, लाख रुपया कर लूँगा। इसको भक्ति नहीं कही जाती है, परंतु भजन कहा जाता है। जैसे चतुर विधा भजन्ते मां सुकृति, सुकृति। ये जो भजन है, ये सुकृतिवान हैं, ये भी पुण्यवान। भगवान का पास मंदिर में जाते हैं, भगवान का पास जाके कुछ मांगने को, ये उसको भी पुण्यवान कहते हैं। सुकृति; क्योंकि जो पापी है वो भगवान के पास जाता ही नहीं, इसलिए अगर भगवान का पास कोई कामना लेके जाए तू वो भी पुण्यवान है। हाँ। “शृण्वताम् स्व-कथाः कृष्णः पुण्य-श्रवण-कीर्तन:”

कोई भी भाव से अगर भगवान का नाम, लीला, परिकर, वैशिष्ट, श्रवन किया जाए तो वो पुण्य होता है। बाकी भक्त के लिए पाप-पुण्य नहीं। ये पाप भी बंधन का कारण है, पुण्य भी बंधन का कारण है। इसलिए भागवत भक्त जो है पाप पुण्य का ऊपर है। हाँ, वो पुण्य होने से उनसे मतलब नहीं है। उसका मतलब है भगवान को संतुष्ट करना। उसको पाप है पुण्य है कोई परवाह नहीं। इसलिए कहते है ये जो शुद्ध भक्ति का विचार है, "अन्यभिलषिता शून्यं" कोई अभिलाष नहीं, बिलकुल शुन्य। "अन्यभिलषिता शून्यं" "ज्ञान कर्मादि अनावृत्तम" और ज्ञानी लोगों का विचार है “निर्भेद ब्रह्मनुसन्दान” ये ब्रह्म से मिल जाना है, एक हो जाना। ये ज्ञानी का विचार है। “ज्ञान कर्मा”। कर्मी का विचार है। हमको भौतिक सुख मिले, हमको सर्व लोग प्राप्त हो जाए, जनलोक, महर्लोक, खूब अच्छी तरह से खाने को मिल जाये। ये कर्मी का विचार है। बाकी भक्ति का जो विचार है वो "ज्ञान कर्मादि अनावृत्तम" ज्ञान का, कर्म का जो फल है उससे अतीत। जैसा श्रीधर स्वामी बता रहे हैं कि श्रीमंत भागवत में "धर्म प्रोजित्ता कैतव अत्र"। उधर श्रीधर स्वामी कहते हैं "अत्र श्रीमद भागवते मुर्ख वांछा अभिसंधि परजयंतं निरस्तम"। जो मुर्ख कामना करते हैं वो निरस्त हैं, कोई भी ठीक नहीं। मुर्ख के ऊपर, इसको कहा जाता है अहैतुकी, अधोक्षजे। 

"स वै पुंसाम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्षजे अहैतुकी अप्रतिहता" इस प्रकार की अब प्रति होताजो भक्ति है वो कभी प्रतिहत नहीं हो सकता है। जी साहब हम तो गरीब है, हम कैसे भक्ति करें? अभी तो पेट के लिए धंधा कर रहा हूँ। नहीं, अप्रतिहता; आप चाहे गरीब है, चाहे अमीर है, मुर्ख है, जो कोई है, चाहे नीच है, पापी है, सबके लिए खुला है। ‘अहैतुकी अप्रतिहता’, कोई प्रतिहता नहीं कर सकता। केवल चाहिए हमको निश्चित करना आज से मैं भगवान का चरण मेंअर्पित हो जाऊंगा। ये बात नहीं है हम मुर्ख है, अभी वेदांत पढूंगा, ज्ञान लाभ करूँगा, तब जाकर के भगवत भक्ति करूँगा। या अभी हम गरीब है, अभी हमको दो-चार-दस लाख रूपया कमाने दो फिर भक्ति करूँगा। अभी हम बालक है, अभी हम भक्ति कैसे करूँगा? ये समय बालक भी कर सकता है। देखिये ये एक बालिका चार वर्ष उम्र है, देखिये नाच रहा है। अप्रतिहता, ये बात नहीं है, ये बालिका है, छोटी है, उसका अभी ज्ञान लाभ करना पड़ेगा और उसको और सब काम करने पड़ेगा तब भक्ति। इम्मेडिएटली, क्योंकि इस जगत में बालक और वृद्ध का क्या विचार है? कभी वृद्ध है कभी बालक। कोई बालक है, सौ वर्ष जियेगा क्या? इसका कोई गैरैन्टी है क्या? मैं जब……। जब जीवन है, हाँ। प्रह्लाद महाराज कहते हैं “दुर्लभं मानुषं जन्म तद् अपि अध्रुवं अर्थदम्” ये जो मनुष्य जीवन है, ये दुर्लभ। बड़ी मुश्किल से मिला है, चौरासी लाख योनि में भ्रमण करते-करते -करते। एक अगर वृक्ष हो गया तो दस हज़ार बरस खड़ा है। हाँ, अमेरिका में वो सैन फ्रांसिस में बगीचा में देखा, इसको परिचय दिया, ये आठ हज़ार वर्ष उसको परमाणु, अभी तगड़ा है। अभी क्या और सात हज़ार वर्ष और जियेगा।? इस प्रकार जीवन मिलता है। ऐसा लंबा चौड़ा जीवन मिलने से क्या लाभ है? हाँ बड़े बड़े साइंटिस्ट लोग चाहते हैं की मनुष्य समाज को ज्यादा करके जिंदा रखे। तो जिंदा रहने से क्या फायदा होता है? ऐसा तो पेड़ भी जिंदा रहता है। हाँ जिंदा चाहे दो ही बरस का हो, भागवत भक्ति लाभ कर लो तब जीवन सफल हो जायेगा। और नहीं तो पेड़ के जैसे दस हज़ार वर्ष खराब करने से क्या लाभ होगा? शास्त्र में ये सब विचार किया, ‘तरवो अपि मूला जीवन्ति’। ये जो वृक्ष है ये क्या जीता नहीं है? अगर कोई कहे जीता है बाकी ये जो मैथून…. इनको नहीं है। तो शास्त्री जवाब देते हैं, जो कुत्ता, सूअर करके उसको मैथुन….. है नहीं? इसी प्रकार सब विचार किया। हाँ। तो, मनुष्य जीवन का उचित है “स वै पुंसाम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्षजे” भगवान का नाम है ‘अधोक्षज’। ये ज्ञान का परिचय है। प्रत्यक्ष, परख, अप्रतक्ष्य, ‘अधोक्षज’, अप्राकृत। सब एक नहीं है। साधारण व्यक्ति का ज्ञान जो है प्रत्यक्ष; सामने आंख में जो कुछ देखता है उसको ही समझता है सत्य वस्तु, और नहीं। वो प्रतक्ष्य ज्ञान; बाकि ये ज्ञान ठीक नहीं है। हमारा प्रपितामह कोई नाम ,है हम आँख से कभी देखा नहीं, तो उसका मतलब वो क्या नहीं है, की नहीं थे। इसी प्रकार भगवान को अगर हम देखता भी नहीं, उसका मतलब नहीं है की मैं खुद भगवान है। ये हमको भगवान को दिखाओ। अरे तुम भगवान को कैसे देखोगे? पहले तो प्रैक्टिस करो कैसे भगवान को देखने होता है? “प्रेमाञ्जन-च्छुरिता-भक्ति-विलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति” भागवत प्रेम लाभ करो; किस तरह से भागवत प्रेम लाभ करना होता है इसका सीखो, आस्ते-आस्ते बढ़ो, भगवान को जरूर देखोगे, कैसे देखोगे? हाँ, हाँ। “प्रेमाञ्जन-च्छुरिता-भक्ति-विलोचनेन, सन्तः सदैव”, चौबिस घंटा खाली भगवान को देखोगे। खाली ये आंख को बनाओ। हाँ, आँख बनाने का तरीका क्या है? "सर्वोपाधी-विनिर्मुक्तम् तत्-परत्वेण निर्मलम्" ये जो आगे हमारा आंख है, आंख से मैं देखता हूँ बाकि क्या देख रहा हूँ? ये हमारा देश है, हमारा फैम्ली है, हमारा शरीर है, हमारा बच्चा है, हमारा पुत्र है, हमारा धन है। यही सब देख रहा हूँ। हाँ। अब जब देखोगे ये शरीर भी भगवान का है, ये धन भी भगवान का है, ये देश भी भगवान का है। ये जो कुछ देख रहा है तो जैसा भगवान सीखा रहा है “रसोऽहम् अप्सु कौन्तेय” की ये जो पानी पीते हो, ये पानी का जो रस है, मैं हूँ। इसी प्रकार देखने शुरू करो। पानी तो सब कोई पीते हैं। जब पानी पियो तो आस्वादन करो। उसी पे अगर भगवान को देखो। देखो जी ये जो आस्वादन है, ये भगवान। “प्रभास्मि शशि-सूर्ययोः”। इस प्रकार शास्त्र में भगवान खुद निर्देश दे रहा है इस प्रकार देखने को शुरू करो। “सर्वोपादि विनिर्मुक्तं”, हाँ अगर ये देखते हो पानी तो ये हमारे देश की पानी है। हाँ, और जो भागवत भक्त है देखता है ये जो पानी का रस है ये भगवान है। इतना ही फर्क है। "प्रेमांजना चुरिता भक्ति विलोचनेना"; इसी प्रकार भागवत भक्ति, अर्थार्त भागवत प्रेम सब समय भगवान का स्मरण, श्रवण, कीर्तन “ श्रवणं कीर्तनं विष्णुः स्मरणं पाद-सेवनम् अर्चनं वंदनं दास्यम्” अनेक प्रकार का भगवान सुविधा दिए हैं। वो अनेक प्रकार सुविधा लो चाहे एक लेओ, एक लेओ। जैसा इधर होता है, इधर श्रवण भी होता है, कीर्तन भी होता है, भगवान का अर्चन भी होता है, दास्य भी होता है, सख्य भी होता है। सर्वार्थ सफलम होंगे। इधर सब है; नव-विधा भक्ति पूर्ण है। अगर ये पूर्णतः कोई नहीं कर सकता है, तो भगवत भक्ति ऐसी अप्राकृत वस्तु है जो नव-विधा का भीतर नौ करो, आठ करो, साथ करो छ करो, पांच करो। आखिर कम-से-कम एक भी तो करो। जैसा ये श्रवण का सुविधा; ये सब जगह में केंद्र खोल रहा हूँ क्यों, ये आदमी को श्रवण का सुयोग दिया जा रहा है? कम से कम इधर आए, कुछ सुने। वो सुनते सुनते ही हो जायेगा। जैसा परीक्षित महाराज, ही वास् लिसनिंग। श्रवणे परीक्षित। ……. वयसखि कीर्तन। जो परीक्षित महाराज जब उनको मरने का समय हुआ सात दिन नोटिस मिला। जो जी सात दिन में तुमको मरने को पड़ेगा। जो ब्राह्मण बालक उसको श्राप दे दिया, सात दिन में तुमको मरना है। बड़ा अन्याय किया? उसी से कलियुग शुरू हो गया। तो उनको सात दिन टाइम मिला। तो उनको क्या करनी चाहिए? तो सब बड़े बड़े ऋषि, बड़े बड़े देवता, पृथ्वी के सम्राट, सब पहुँच गए। तो उस समय सुखदेव गोस्वामी पहुँच गए क्योंकि परीक्षित महाराज भक्त थे। सुखदेव गोस्वामी उस समय पहुँच गए की ये हमारा भारी भक्त है। जब …….. तय करेंगे मैं उनको थोड़ा देख कर आऊंगा। उनके पिताजी व्यास देव भी मौजूद थे। तो हर एक प्रकार से “नासाव ऋषिर यस्य मतं न भिन्नं”। इस तरह परीक्षित महाराज पुछा की अंतिम समय में हमको क्या करना चाहिए। तो कोई कहा योग कीजिए, कोई कहाँ ध्यान कीजिए, कोई कर्म कीजिए, कर्म कांड कीजिए, बाकी सुखदेव गोस्वामी बताया की महाराज आप केवल भगवान का कीर्तन सुनीए। श्रीमद्भागवत सुनीए। हाँ, तो सब ऋषि लोग सहमत हो गए। तो जो सुखदेव गोस्वामी कह रहे है एहि चीज़। तो महाराज सुना, और कुछ कार्यक्रम नहीं किया। केवल बैठकर भागवत सुना। हाँ, इसीलिए श्रवणे परीक्षित। परीक्षित महाराज केवल श्रवण करके ही मुक्त हो गया, भगवान का चरण उसको प्राप्त हो गया। और सुखदेव गोस्वामी केवल कीर्तन किया, कीर्तन ये जो हम अभी आप लोगों को सुना रहा हूँ, ये भी कीर्तन है। कीर्तन का अर्थ ये नहीं की ढोल और झांझर लेकर थी भगवान का गुणगान होता है वो भी कीर्तन, कीर्तन कीर्तयती। जहाँ विचार होता है वो भी कीर्तन। तो श्रवणम, कीर्तनम, विष्णु और किसी का नहीं। हम लोग मीटिंग में जाते हैं, हाँ, कोई पॉलिटिकल लीडर के विषय सुनते हैं, वो श्रवण नहीं। श्रवणम, कीर्तनम, विष्णु। इसमें काम करें और नहीं तो वो यूनाइटेड नेशन में केवल सब कीर्तन होता है, अंड-षंड इधर उधर बकता है। ऐसा 20 बरस से पीस स्थापन करने के लिए। वो श्रवण से कुछ काम नहीं चलेगा। वो चाहे हजारों वर्ष करते गए। ये श्रवण से कुछ काम नहीं। श्रवणम, कीर्तनम, विष्णु, ये शास्त्र का उद्देश्य, इसका मीटिंग बनाइए, इसका असेंबली बनाइए इसका भी (27.9 गायब) निर्वपाण हो जायेगा। हाँ,तो ये सब विचार है, शास्त्रीय विचार है, बड़े बड़े आचार्य का विचार है, इसको छोड़ न दीजिए, हाँ इसको ग्रहण कीजिए, ये सब निर्गुण विचार है। साधारण व्यक्ति का चार दोष होता है: ब्रह्म, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करनपाटवा। और जो मुक्त व्यक्ति है; इसीलिए 5000 वर्ष पहले, ये भागवत को लिखा गया था और भगवद गीता भगवान स्वयं बताए थे, वो पुरानी नहीं हुई है। वो आज तक नवीन है। आज तक उसमें बड़े बड़े ऋषि लोग, आचार्य लोग उसमें लाभ उठाता है। इस कारण, क्यों, ये कोई मूर्ख बद्ध जीव का लिखा नहीं है? ये मुक्त जीव का लिखा है जिसका चार दोष नहीं है, ब्रह्म, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करनपाटवा। इसलिए शास्त्र उसको माना जाता है। हाँ, देखिए भागवत गीता में, श्रीमद भागवत में बुद्ध देव का विषय लिखा गया है 'कृकितेषु बाविष्यते'। क्यूंकि 5000 वर्ष पहले श्रीमद भागवत को रचना की गई थी और बुद्ध देव आज से 2500 वर्ष पहले उनका जन्म हुआ, इसलिए भागवत में भगवान का होता है, जहाँ वर्णन है, बुद्ध देव का भी नाम दिया है परंतु लिखता है भविष्यती। आगे जा करक हो। इसका नाम है साधु। त्रिकालज्ञ, तीन काल को जानता है; भूत, भविष्य, और वर्तमान सब का ज्ञान। 'समो', भगवान खुद कह रहे है जो मैं भूत, भविष्य, वर्तमान, सबको जानता हूँ। इसलिए उसी को ग्रहण करना चाहिए जो की भूत, भविष्य, और वर्तमान सबको जानता हो। ये जो भगवान भगवद गीता में कहते हैं की देखो अर्जुन तुम क्यों इतना शौक करते हो। तुम, हम, और जीतने ये सिपाही, और राजा लोग इधर आए हैं, कि ये पहले भी थे, अभी भी है, और आगे भी रहेंगे। इसका नाम है भूत, भविष्य, वर्तमान समझ। जो इस प्रकार भूत, भविष्य, वर्तमान समझते हैं, जिसका आँख…… नहीं है। बत्ती बुझ जाए तो ये आँख सब खत्म हो जाए, वो नहीं। वो बत्ती जले य ना जले देख सकता है खुद भविष्य, उनसे सुनना चाहिए। उनको बात लेना चाहिए। और नहीं तो "अन्धा यथान्धैर उपनीयमानास" एक अंधा और अंधे को पार करा रहे हैं, सभी गड्ढे में गिर गए। हरे कृष्णा, थैंक यू वैरी मच।। पशु जो होता है वो चार पैर वाला, वो 30,00,000 किस्म का होता है। और मानुषी, मनुष्य जो होता है वो 4,00,000 किस्म का होता है। तो मनुष्य जाती बहुत ही कम है। और सब जानवर जीतने हैं जल से शुरू करके आकाश तक, केचर-भीचर, जंगम, स्थावर उसका नंबर ज्यादा है। तो भगवान सब को खाने को देता है। वो जो जल का जानवर है, स्थल का जानवर है, हाथी है, शेर है, सब को भगवान खाने को देता है। "नित्यो नित्यनाम चेतनस चेतनानां एको बहुनाम यो विदधाति कामान्" ये वेद में कह रहें हैं; ये एक जो नित्य वस्तु है भगवान, चेतन, भगवान जैसे चेतन वस्तु, मैं भी चेतन वस्तु। अभी भगवान का हमसे फरक क्या है? भगवान सबको खाने को देता है और हम खाने के लिए भटकता है, इतना ही फरक है, बस। और ये मुर्ख लोग कहते हैं मैं भगवान हूँ। देओ सबको खाने को दो। हाँ, तो अपना परिवार तो खाने को नहीं दे सकते हो, संन्यास लेके बाहर चले जाते हो और भगवान बोलते हो। ये सब मूर्खता है। “एको बहुनाम यो विदधाति कामान्"; 84,00,000 योनि जीवात्मा भ्रमण कर रहे हैं। सब के लिए खाने का, सोने का, “आहार निद्रा, भय, मैथुनम च”, उनको सब व्यवस्था भगवान करते हैं। “एको बहुनाम यो विदधाति कामान्"। इसलिए भगवान कहते हैं, “एतद-योनीनी भूतानि सर्वाणित्युपधारय” । 84,00,000 योनी, सबके, सृष्टि, स्थिति, प्रलय जो कुछ है तो मैं उसको करने वाला हूँ। ये भगवान है। इसका नाम भगवान है। एतद-योनीनी सर्वाणी, “एतद-योनीनी भूतानि सर्वाणित्युपधारय अहं कृत्स्नस्य जगत:’ । सारा विश्व ब्रह्मांड में, ‘अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभवः प्रलयस् तथा’, हाँ, उसका सृष्टि, स्थिति, प्रलय जो कुछ होने वाला है, भगवान उसको कारण है। इसके लिए भगवान का नाम है 'सर्व कारण कारणं'। सब कारण के कारण। साधारण सृष्टि करते हैं ब्रह्माजी, और स्थिति करते हैं विष्णु, और प्रलय करते हैं शिव। त्रिकाल, त्रिभुत का मालिक। त्रिगुण का मालिक जैसा गवर्नमेंट ऑफिस में एक-एक डिपार्टमेंट में डाइरेक्टर रहते हैं, इसी प्रकार जब सृष्टि होती है, जो ऑफिसियल डायरेक्टर जो होते हैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर। ब्रह्माजी का काम है सृष्टि करने। विष्णु जी का काम है उसको पालन करना। पालन तो ब्रह्मा भी नहीं कर सकते शिव भी नहीं कर सकते। “एको बहुनाम विदधाति कामां”, वो विष्णु। ब्रह्मा जी सृष्टि करते हैं, और विष्णु पालन करते हैं, और शिवजी का काम है ध्वंस करते हैं। जब इसको ध्वंस का जरूरत होता है, वो शिवजी का काम है। जैसा कोई मकान बनाता है, और मकान कोई उसको पालन करता है, और कोई मकान तोड़ता है। जैसा आप लोग जानते हैं इसी प्रकार ये जो मकान है, विश्व ब्रहमांडा, इसको तैयार करने वाला ब्रह्माजी, और उसको पालन करने वाला विष्णु, और इसको तोड़ डालने वाला शिवजी, महेश। ये काम चलता है। ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’। ये जो जगत है, भौतिक जगत, इसी प्रकार सृष्टि होती है, कुछ दिन ठहरता है, फिर प्रलय होता है। हाँ, तो जैसा कोई भी हम लोग हो, एक मकान में गए, और कुछ दिन ठहरा, और फिर सम्मन आया की चलो जी इस मकान से निकालो, ये मकान तोड़ी जाएगी। हाँ, इसको तोड़ने वाला है। आपको ठीक लगता है क्या। देखो जी एक मकान में गया अभी तोड़ दिया, और एक मकान में गया, वो भी तोड़ दिया। एक अपना मकान अगर बना लेता तो ठीक होता। ये जैसा भीतर में ये विवेचना होता है, इसी प्रकार शून्य समझना चाहिए की ये जो हमको शरीर मिलता है, भौतिक शरीर, एतद योनी, में, 84,00,000 योनी में हमको भ्रमण करना पड़ता है, इसको किस तरह से बंद किया जाये? वो बुद्धिमान का काम है। और चलो साहब आप तो शेर भी बन गया, और सूअर भी बन गया, और इंद्र बन गया, और उसके बाद चींटी बन गया। भूत्वा-भूत्वा प्रलीयते। एक शरीर मिलता है, कुछ दिन उसमे ठहरता है, पुरा हो जाता है, फिर अपना कर्म का अनुसार और एक शरीर मिलता है, वो भी कुछ दिन ठहरता है, फिर तोड़ने पड़ता है, ये काम चलता है। बाकि हम लोग जो मुर्ख हैं नहीं जानते हैं, इसलिए आचार्य से शिक्षण लेना चाहिए जैसे चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि "ऐइ रुपे ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोण भाग्यवान जीव गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाय भक्ति-लता-बीज" इसी प्रकार भर्मण कर रहे हैं नाना योनी और यदि भ्रमण करते-करते कोई भाग्यवान होये तो उसको ठीक ठीक गुरु मिल जाता है, कृष्ण का इच्छा से, और वो कृष्ण को मिला देता है। कृष्णा गुरु को मिला देते हैं, और गुरु कृष्णा को मिला देते हैं। गुरु कृष्णा कृपा। जो ये समझता है देखो ज, ये बड़ा झंझट है एक-एक बार जन्म लेना फिर मरना इसका कोई उपाय है? भगवान कोई उपाय बताइए। जो वास्तविक भगवान से प्रार्थना करते हैं उसके लिए भगवान अच्छा गुरु उनको मिला देते हैं। इसलिए कहते हैं गुरु कृष्णा कृपा; दोनों का कृपा होना चाहिए, भगवान की कृपा और गुरु की कृपा। तब ये जो भूत्वा-भूत्वा प्रलीयते एक-एक बार जन्म लेना और मरना, ये बंद हो सकता है। हाँ, और किस तरह से, वो भक्ति लता बीज है, भगवद भक्ति द्वारा। (थोड़ा आहिस्ते बोलिये) भगवान कहते हैं “एतद-योनीनी भूतानि सर्वाणित्युपधारय अहं कृत्स्नस्य जगत:” । देखिए भगवान सर जला रहे मैं, अहम्, मैं। ‘मां एवा ये प्रपद्यन्ते’, ‘सर्व धर्मान परित्यज्य’, मां एकं, ये सब……। ‘अहम् मां’ भगवान अपने को बोलते हैं। …………..(37.50)। हाँ। तो क्यों आप क्यों हो गया? और कोई नहीं होता है? ……. बड़े-बड़े देवता। तो कोई पूछ सकता है जैसा मूर्ख लोग अभी भी पूछता है कृष्णा अकेले क्यों भगवान बन जायेंगे? हाँ, हमारा और भगवान है, अवतार है, गाड़ी वाला भगवान है। हाँ वो अवतार है, एक बालक अवतार है, ये सब आजकल अवतार तो रस्ते में घूमते हैं, फिर भगवान कृष्ण क्यों अकेले भगवान हो जायेंगे?। वो बोले ना की आप लोग कृष्ण को मान सकते हैं, बाकी हमारा मत अलग है। हमारा भगवान अलग है। बोलता है; ये मुर्ख जानता ही नहीं की वास्तविक भगवान क्या चीज़ है। इसलिए कृष्णा …… करता है मत्तः परतरं नान्यात परतरं। और मुझसे बढ़ करके ऊँचे पोज़ीशन में ‘न अनयात’ और कोई है नहीं। हाँ, भगवान का समान भी कोई है नहीं, अब भगवान का ऊपर वाला भी कोई है नहीं, सब नीचे वाला। इसलिए भगवान का और एक नाम है असमौरध्वा। असमौरध्वा। जब भगवान विराट रूप अर्जुन को दिखाया था, उस समय अर्जुन ने बताया कि आप असमौरध्वा। आपका सामान भी कोई है नहीं और आपका ऊपर भी कोई नहीं। हाँ, तो भगवान खुद भी बताते हैं “मत्तः परतरं नान्यात किंचित अस्ति धनंजय”। मुझसे बढ़करके और कोई पर तत्त्व है नहीं।। हाँ, तो जो बुद्धिमान है, वो कृष्ण को ही पकड़ के रखते हैं, उनका ही चरणारविन्द को पकड़ के रखते हैं। …….. अगर हम लोग समझ जाए की कृष्ण से बड़े और कोई है ही नहीं। बस कृष्ण का चरण पद्मजा है। हाँ, उनको अच्छी तरह से हम पकड़ लें, और भगवान कहते हैं "मां एव ये प्रपद्यन्ते मायां एतां तरन्ति ते"। उसी वक्त मुक्त हो जायेंगे। माया से मुक्त होना इसका नाम है मुक्ति। हाँ, और कोई अगर समझ लिया ठीक ठीक से जब कृष्ण से पुरतत्व है नहीं, और कृष्ण का चरण में प्रपन्न हो गया, वो, वो जल्दी नहीं होता है; 'बहुनाम जन्मनाम अन्ते' जल्दी हो तो बड़ा बुद्धिमान है। जैसे भगवान कहते हैं ‘मत्तः परतरं नाण्यात’, मुझसे बड़ा परतत्त्व है नहीं, फिर हम दूसरे को क्यों भजन करें। क्यों न कृष्णा को ही केवल भजन करें? ‘मां एकं’, ये बुद्धिमान का काम है। हाँ, और जो अभुदयः ‘मन्यते मां अभुदयः’ भगवान ये भी कहते हैं की “अव्यक्तं व्यक्तिम आपन्नं मन्यन्ते माम अबुद्धयः” ये जो मूर्ख लोग होते हैं वो कहते हैं जो है, ये परतत्त्व जो है निराकार है। और निराकार जब अपना सगुन, ये सत्तम, सब तरह का गुण से शरीर धारण करता है उसका नाम है भगवान। हाँ, तो उसका जवाब भगवान देते हैं “अव्यक्तं व्यक्तिम आपन्नं मन्यन्ते माम अबुद्धयः”। उसकी बुद्धि कम है, लेस इंटेलीजेंट, पुअर फण्ड ऑफ़ नॉलेज। वो कहते हैं की भगवान निराकार है अभी ये शगुन हो करके साकार हो। आए हैं। ये कौन बोलता है अबूत? वो कहते हैं भागवत निराकार हैं, आकर ले करके अभी आये हैं। ये कौन बोलता है, अबुद्धयः। जो भागवत तत्त्व जानते ही नहीं, वो बोलता है। भगवान खुद कहते हैं कृष्णा, मत्तः परतरं नान्यत। और कोई तत्त्व है? मत्तः परतरं, सब शास्त्र में ही कहते हैं जो तत्त्वदर्शी क्या चीज़ है। तत्व वस्तु; 'वदन्ति तत्त्व विदस तत्त्वं' जो धीर है, जो तत्व को जानने वाले हैं, वो “वदन्ति तत् तत्त्व-विदस तत्त्वं यज ज्ञानम् अद्वयम्” उस चीज़ को तत्व कहते हैं, क्या चीज़ है; अब्सोल्युट नॉलेज, अद्व्यय ज्ञान। वो क्या चीज़, “ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान इति शब्द्यते” वो तत्त्व वस्तु जो है अपना बुद्धि का अनुसार कोई कहते हैं निराकार ब्रह्मा, कोई कहते हैं परमात्मा, और जो असल है वो जानते हैं भगवान। आखरी में भगवान, हाँ। जैसे सूर्य, भगवत तत्व ज्ञान आप थोड़ा अगर दिमाग को लगाइएगा, बहुत जल्दी मालूम हो जायेगा। देखिए जैसे आपके सामने सूर्य है। और सूर्य का किरण भी है। हर सूर्य का जितना भी लोक है, जैसा ही ये पृथ्वी एक लोक है, इधर बहुत आदमी है, इधर राजा है। इसी प्रकार सूर्य लोक जो है, उधर का जो राजा है उसका नाम है सूर्यनारायण। साधारण नाम। अभी जो सूर्यनारायण है उसको नाम भी है। भगवद गीता में बताए हैं उनका नाम है विवस्वान, विवस्वान। विवस्वान् मनवे प्राहा मनुर इक्ष्वाकवे ‘ब्रवीत्। ये सब शास्त्र में दिया है। अभी जो इधर का गवर्नर है, उसका नाम है विवस्वान। तो सूर्यनारायण का जो तेज है, तेजस्वी, वो तेज सारा विश्व ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है, और उसका नाम है सूर्य किरण। अभी विवेचना कीजिए वो सूर्य नारायण बड़ा है ना सूर्य किरण बड़ा है। कोई कहेगा सूर्य किरण बड़ा है, नहीं सूर्य नारायण बड़ा है। क्योंकि किरण कहाँ से आता है कहाँ? जहाँ से किरण आता है वही तो बड़ा होगा। नहीं हम लोग ये जो प्रत्यक्षवादी है की वो उसी के अंदर तक। इसी प्रकार भगवान का जो अंग ज्योति है जैसे सूर्य नारायण का किरण है। इसी प्रकार भगवान का भी एक अंग ज्योति है, जिसका नाम है ब्रह्म ज्योति। इसलिए भगवान कहते हैं ‘ब्रह्मणों ही प्रतिष्ठाहं’। ये जो निराकार ब्रह्म है उनकी प्रतिष्ठा मैं हूँ। क्योंकि हमारा अंग से है ये ज्योति निकलती है और ब्रह्म संहिता में कहते हैं “यस्य प्रभा प्रभवतो जगदंड कोटि”। ये सब विचार है। बाकि मुर्ख लोग जो नहीं समझते हैं, मैं मूर्ख नहीं कहता, भगवान कहते हैं। ‘अवाजानन्ति मां मूढ़ा’, ये मुर्ख लोग, मूढ़ा। ‘मानुशिम तनुं आश्रितम’ क्योंकि ये जगत को कृपा करने के लिए हम मनुष्य जैसे लीला कर रहा है। मनुष्य कैसे नहीं मनुष्य बाहर नहीं कह सकते हैं। बाकी हाँ ऐसे मालूम होता है कृष्णा वृंदावन में नित्य लीला कर रहे हैं, द्वारका। बाकी मनुष्य है नहीं। जब जरूरत होता है, भगवत्ता दिखाते हैं। सात वर्ष उम्र में पहाड़ को उठा लिया। 16,000 आदमी को शादी कर लिए। ये क्या मनुष्य से हो सकता है क्या? और क्योंकि मनुष्य से हो नहीं सकता, जो मूर्ख मनुष्य है वो कहता ये सब कहने का है जी, ये कभी हो सकता है? क्योंकि उसका दिमाग में घुसता नहीं, इसलिए वो मिथ्या हो गया। हाँ, ये सब चलता है। इसलिए भगवान खुद आकर के समझाते हैं। अगर हमारा दिमाग ठीक है तो इसको पकड़ लेंगे, समझे, भगवान को। तो अब समझ गया भगवान को तो फिर क्या बात है? 'त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नैति मां इति ऐति कौन्तेय'। ये सब बातें हैं। भगवान कहते हैं, "मत्तः परतरं नान्यत् किंचिद अस्ति धनंजय मयि सर्वं इदं प्रोतं सूत्रे मणि-गणा इव"

जैसे मनी का हार होता है। उस सूत्र में हजारों मनी आप लगा दीजिए। इसी प्रकार दुनिया में जो कुछ है, उसका सूत्र जो है, उसका मूल जो है 'अहम् सर्वस्य प्रभवो' मूल पुरुष है ‘गोविंद आदि पुरुषं’ वो जो आदि पुरुष ,है वो भगवान पुरुष। हाँ, तो भगवान खुद बताते हैं तो शास्त्री इसी प्रकार समझना चाहिए, जो भगवान जैसे बता रहे हैं। इसलिए हमारा जो भागवत गीता है, मैक्मिलन कंपनी इसको पब्लिश करता है। हाँ वो मैक्मिलन कंपनी का जो ट्रेड्स मैनेजर है, वो कहते हैं की ये जो भागवत गीता है इसको सेल बहुत बढ़ गया है। और सासब भगवद गीता का सेल कम हो गया है।। और एक एक बरस में एक एक एडिशन निकलता है। कम से कम पचास हज़ार लाख एक दफे में छपता है। हाँ, तो क्योंकी हम लोग भगवद जीता एज़ इट इस प्रेसेंट किया है इसको डिमांड बहुत हो गया है। असल चीज़ है न, कोई भी असल चीज़, ये सोना है न, दूध है, उसको ग्राहक बहुत जल्दी मिल जाती है। और मिलावटी, नकल, उसको कैनवास करके बेचने पड़ेगा। तो असल जो भगवान है उसको तो जल्दी स्वीकार कर लेते हैं, चाहे इस देश में या प्रदेश में।  और नकल भगवान को कोई स्वीकार नहीं करता है। दो चार लोग स्वीकार करेंगे फिर लात मारकर फेक देंगे। ये समझ रहता है।

"मत्तः परतरं नान्यत् किंचिद अस्ति धनंजय”। सर्व कारण, जो ब्रह्मा संहिता में बताया है ‘सर्व कारण कारणं’, वोई भगवान खुद भी कहते हैं “मयि सर्वं इदं प्रोतं सूत्रे मणि-गणा इव"। हाँ, तो भगवान ही मूल कारण है; “गोविंद आदि पुरुषं तमहं भजामि”। इसलिए ब्रह्माजी कहते हैं जी गोविंद, जो आदि पुरुष, मैं उसको भजन करता हूँ। और ब्रह्मा, ये ब्रह्मा सम्प्रदाय है, ये जो हम लोग गौडीय संप्रदाय है। ब्रह्मा से मध्वाचार्य, मध्वाचार्य से गौडीय चैतन्य महाप्रभु। मध्वाचार्य संप्रदाय में माधवेन्द्र पुरी। शिष्य ईश्वर पुरी और उनका शिष्य श्री चैतन्य महाप्रभु। और श्री चैतन्य महाप्रभु के परंपरा से हम लोग। तो इसको कहा जाता है “एवं परम्परा-प्राप्तं इमं राजर्षयो विदुः” से जो भागवत ज्ञान प्राप्त करने के लिए वो परंपरा सूत्र से लेना चाहिए। अपना मन-माफिक, मैं ऐसा समझता हूँ; और तुम क्या समझने वाला, तुम्हारा क्या दिमाग है? जैसे बड़े बड़े आकर के लोग समझे हुए हैं। चैतन्य महाप्रभु जैसे समझे हुए हैं, रामानुजाचार्य जैसे समझे हुए हैं, मध्वाचार्य, उस तरह से समझो, और जो अर्जुन जैसे समझे हुए हैं, उस तरह से समझो। तुम्हारा क्या दिमाग है। कोई कह दिया हमारा मत में, अरे तुम्हारा मत का क्या मूल्य है? हाँ, बस यही चलता है। हमारा मत, कोई दूसरा मत में, और हमारा मत में, कौन सा मत ठीक है? ये तो सब मत, ‘यतो मत ततो पथ’इतना मत हैं सब ठीक हैं। ये सब बेवकूफ़ी चलता है। तो ये सब बेवकूफ़ी छोड़ कर के जैसे भगवान बताते हैं, उस प्रकार ग्रहण कीजिए, लाभ होगा, उसमें उपकार होगा, जीवन सफल होगा। और नहीं तो भटकते ही रहेंगे बस। “मत्तः परतरं नान्यत् किन्चिद अस्ति धनन्जय”

भगवान खूद करतेखुद कहते हैं, अर्जुन भी मानते हैं, और बड़े बड़े ऋषि व्यास देव, नारद, हाँ। व्यास देव भागवत में लिखा “ओम नमो वासुदेवाय”; उसका टिप्पणी  में लिख रहा है चित मकरन्दाय कृष्णाय। श्रीधर स्वामी, जीवा गोस्वामी, बड़े बड़े सब विद्वान, ….. सब कृष्ण को मानते हैं, ये सब आचार्य लोग, “कृष्णस तू भगवान स्वयं”, यही विचार है। ये सब विचार छोड़कर के कहीं एक गधा कहीं से आ जाने से, उसको विचार लेने से क्या लाभ है? बड़े-बड़े आचार्य लोग का विचार छोड़करके, ये कहीं से कोई आ गया मूर्ख, कह दिया मैं भगवान है, भगवान का अवतार, इसको मानने से क्या लाभ है? अरे तुम तो भगवान का अवतार है, मैं तो खुद भगवान को भजन करता हूँ, क्या अवतार से हमारा मतलब क्या है?

हाँ। तुम झूठ हो सकते हो, बाकी कृष्णा तो झूठ नहीं है, सब कोई मानता है। तो कृष्ण को सरेंडर, ये बुद्धिमान का काम है। दुसरे को हमको पकड़ने का क्या जरूरत है? हाँ, नहीं, वो जो हमारा जो बदमाशी है उसको सपोर्ट करेंगे, इसलिए उसका भगवान मानेंगे और कृष्णा तो सपोर्ट नहीं करेंगे? हाँ, कृष्णा कहते हैं “तान अहम् द्विषतः क्रूरान संसारेषु नराधमान “क्षिपाम्य अजस्रं अशुभं आसुरीश्व एव योनिषु” क्यों भगवान शिक्षा करते हैं, भगवान कहते हैं मैं उसको अजस्रम योनि में भेज दिया। इसलिए कृष्ण को भगवान कहते हैं, उसको नहीं। हाँ। जो और भी भगवान का अवतार हैं, धोखा देने वाला, उसका हम मानेंगे। बाकी जो बुद्धिमान है वो भगवद गीता का अनुसार कृष्ण को मानेंगे। “मत्त परतरं नान्यत किंचिद अस्ति धनंजय”। फिर भगवान साधारण के लिए समझा रहे हैं; जो जल्दी भगवान को समझ नहीं सकोगे तो भगवान तो पहले बता दिया जो कुछ है, हाँ, भौतिक प्रकृति और चित प्रकृति ये सब हमारी शक्ति है। प्रकृति। तो सब किस तरह से समझा जाये थे सब चीज़ से ही भगवान का अनुभव किस तरह से करना है वो भगवान खुद समझा रहा है। सब चीज़ जब भगवान से ही, जैसा उदाहरण स्वरूप की दुनिया में, भौतिक जगत में, जो कुछ चीज़ है ये सूर्य किरण का परिवर्तन है। ये साइंटिफिक, वैज्ञानिक दिशा। देखिए जिस-जिस में सूर्य किरण नहीं होता है, हाँ होता नहीं, मने कम होता है जैसे पाश्चात्य देश, मैं तो सब जगह भ्रमण किया हाँ, जहाँ सूर्य किरण नहीं होता है, विशेष करके ये, क्या नाम है शीतकाल में ये सब पत्ती झड़ जाता है। आप लोग जानते हैं, जहाँ बर्फ़ गिरता क्यूंकि सूर्य किरण है नहीं वो सब ब्यूटी जो वेजीटेशन, ग्रीननेस, सब नष्ट हो जाता। हाँ, ज्यादा सूर्य किरण जहाँ होता है वो तो डिज़र्ट हो जाता है, मरुभूमि हो जाता है। और सूर्य किरण जहाँ ठीक-ठीक होता है उधर पानी भी बरसता है और उधर हरियाला रहता है। ये सब दुनिया जो कुछ है सूर्य किरण का सृष्टि जितना अलग-अलग प्लानेट है, इसलिए सूर्य का नाम दिया गया है "यच-चक्षुर एषा सविता सकल-ग्रहाणां राजा समस्त-सूर-मूर्तिर अशेष-तेजः" ‘समस्त ग्रहाणां राजा’ ये सूर्य किरण से जिसने प्लेनेटरी सिस्टम है, लोक है, ये जो वैटलेसस्नेस है, एक एक लोक, ग्रह, हवा में घूमती फिरते है यही सूर्य किरण के लिए। वो सूर्य किरण का गर्मी से घूमता-फिरता है। ये सब साइंटिफिक है। हाँ, फिर इसी प्रकार जब एक तरह से आप समझ लीजिए सभी सूर्य किरण का ही एक-एक विकार है, जो कुछ दुनिया में है। तो इसी प्रकार भगवान सबके विकास का एक कारण है। तो किस तरह से भगवान को मैं अनुभव कर सकता हूँ? यही सब भौतिक विचार से वो भगवान खुद हमको बता रहे हैं। हाँ, क्या बता रहें है? 'रसो हं अप्सु कौन्तेय' तुमको, वो त्रिभंग द्विभुज मुरलीधर कृष्ण को भगवान मानने में तुम्हारा आपत्ति है, तो इस तरह से भगवान को समझो। क्या है? 'रसो हं अप्सु कौन्तेय' ये जो पानी, इसका जो रस है, इसमें जो शांति मिलती है, हम लोग सब रस का पीछे जाते हैं। हाँ, द्वादश प्रकार रस होता है। तो रस का पीछे हम लोग सब भागेंगे, रसो वई स, ……में कहते हैं सब रस का आधार है भगवान कृष्णा। और जीव गोस्वामी भक्ति रसामृत सिंधु में भी बताये हैं ‘अखील रसाम्रता सिंधु’, सब रस के आधार हैं। तो सब रस का आधार होने का कारण ये जो जल है, उसमें भी भगवान कहते हैं इसमें जो रस है, जल क्यों पिया जाता है, उसमें कुछ रस है तभी तो हम लोग पीते हैं। हाँ, जब बहुत प्यास लगता है तो जल चाहिए, जल दीजिये, सब जल, जीव-जंतु सभी जानवर जल पीते हैं। कीट, पतंग सब जल, वृक्ष सब जल चाहिए। वृक्ष केवल जल पी के ही रहता है हाँ। तो जल बहुत ही जरूरी चीज़ है। इसलिए भगवान कहते हैं कि उसमें जो रस है, अस्वादिन्य वस्तु, उसका जो अक्टिव प्रिंसिपल है, वो मैं हूँ। “रसोऽहं अप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशि-सूर्ययोः”। और ये जो शशि और सूर्य चंद्र हाँ, सूर्य, इसका जो किरण है वो मैं हूँ। तो क्यों ये लोग झूठ बोलता है जो भगवान को मैं देखा नहीं। आप भगवान को दिखा सकते है? अरे भगवान तो खुद कहते हैं देखो ना। अगर तुम आग मूँद के रहोगे तो तुमको कौन दिखाएगा? हाँ, भगवान खुद कहते हैं, ये जो रस, पानी का जो रस है, जल का जो रस है, मैं जब पानी पियो, उस समय क्यों न भगवान का स्मरण करो। क्यूंकि देखो जी कृष्ण भगवद गीता में बताये हैं ये जो जल का रस है, ये ही भगवान कृष्ण है। तो हमारा स्मरण तो हो जाएगा, बात भी तो ठीक है। तो कृष्णा दर्शन क्या केवल ये इधर आके होता है? नहीं? ‘अखिलात्म भूतो’ “गोलोक एव निवसति अखिलात्म-भूतो”।