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730101 - Lecture BG 07.13 Hindi - Bombay

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



730101BG-BOMBAY - January 01, 1973 - 38:15 Minutes



Prabhupāda:

. . .ebhiḥ sarvam idaṁ jagat
mohitaṁ nābhijānāti
mām ebhyaḥ param avyayam
(BG 7.13)

HINDI TRANSCRIPT

Prabhupada:

. . .एभिः सर्वं इदं जगत्
मोहितं नाभिजानाति
माम एभ्यः परम अव्ययम्
(BG 7.13)

श्रीपाद रामानुजाचार्य कह रहे हैं “तद् एवं चेतना चेतनात्मकम् कृष्णम जगत् मदीयम् काले-काले मत्तः एवं उत्पद्यते मयि या प्रलीयते मयि एव अवस्थितं मत शरीर व्रतं मत आत्मकम च इति अहम एव कार्य अवस्थयं कारण अवस्थयं च सर्व शरीररथया तत् प्राकार अवस्थितः” । भगवान जैसे कपडे का शूज होता है, इधर भी सूत है और इधर भी सूत है और सब एकत्रित होकरके कपड़ा बनता है। सूत से कपड़ा और रुई से सूत और रुई से बीज और बीज से पेड़। इसी प्रकार भगवान पहले बताये हैं "बिजोहम सर्व भूतानां। सब चीज़ का जो बीज है वो भगवान। जब भगवान ही असल कारण और सब कार्य। ब्रह्मा संहिता में इसको और स्पष्ठता बता रहें हैं "ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद-विग्रहः अनादिर आदिर गोविन्दः सर्व-कारण-कारणम्" सब कारण के कारण। एक कारण और उसका कार्य जैस बीज़ कारण है और कार्य है पेड़ और पेड़ कारण है और उसका कार्य है फूल और फूल कारण है और उसका कार्य है रूई, रुई कारण है और उसका कार्य है शू और शू कारण है और उसका कार्य है कपड़ा। तो जब हमलोग कपड़ा देखते हैं तो सोचते हैं ये कपड़ा मशीन में बनाया गया है ये तो कोई दांत चलते हैं वीवर वो बनाया है। असल में भगवान बनाया है जिसका नाम है कृष्णा कोनशएसनेस्। जो मूल कारण को देख सकता है सब समय। इस विषय में एक सुन्दर कहानी है थोड़ा आपलोग सुनिए की नारदजी भगवान के पास जा रहे हैं। तो उसमे रस्ते में एक चमार से मुलाकात हुआ और वो पुछा नारदजी से महाराज आप किधर जा रहे हैं। नारदजी बताये की मैं भगवान से मिलने जा रहा हूँ। तो वो चम्मर नारदजी से पुछा की थोड़ा भगवानजी से पूछियेगा की हमारी मुक्ति कब तक होएगी। अच्छा हम पूछेंगे। और रास्ता में इस प्रकार एक ब्राह्मण से मुलाकात हुआ, बहुत भारी पंडित, दार्शनिक। वो भी यही बात पुछा नारदजी से की आप कहाँ जा रहे हैं। नारदजी बोले वैकुण्ठा भगवान से मिलने के लिए। तो हमारा विषय कुछ पूछियेगा, जरूर पूछेंगे। तो नारदजी जब भगवान के पास आये तो बातचीत होने के पश्चात, नारदजी पूछे भगवान से देखिये रस्ते में आते-आते एक ब्राह्मण से भी मुलाकात हुआ और एक चमार से भी मुलाकात हुआ, दोने एहि बात पूछे, तो उसको क्या जवाब दे। तो भगवान बताये की देखोजी अभी ब्राह्मण का तो बहुत देर है और जो चमार है इसी जीवन में उसकी मुक्ति हो जाएगी। तो नारदजी को थोड़ा आश्चर्य हो गया की ये ब्रह्मण के विषय में बोलते हैं की अभी देर है और चमार के विषय में बोलते हैं की इसी जीवन में उसका मुक्ति हो जायेगा। क्या बात ह। भगवान बोले की देखो जब वो पूछेगा की भगवान क्या कर रहे थे तो बोलना की भगवान सुई के छिद्र से एक हाथी को इधर से उधर ले आ रहे थे और उधर से इधर। तो नारदजी समझे हुए तो थे पर जब लौट के गए तो ब्राह्मण से बोले, ब्राह्मण जब पुछा की भगवान क्या काम कर रहे थे, तो बोले की भगवान एक हाथी को सुई के छेद से इधर ले आ रहे थे और उधर ले जा रहे थे। तो ब्राह्मण ने कहा की देखिये ये सब जो बातें हैं हमको ठीक नहीं लगी, अच्छी नहीं लगी। ये कोई संभव है क्या, वो माना नहीं और जब चमार के पास गया और उसको जब बोलै तो वो रोने लगा, ओ! भगवान का क्या शक्ति है, भगवान सब कुछ कर सकते हैं, उनको विश्वास है की भगवान चाहे तो हाथी को सुई के छेद से निकाल सकते हैं। नारदजी पूछे की तुमने इस बात का विश्वास किया, चमार बोला क्यों नहीं, महाराज भगवान सब कुछ कर सकते है, कैसे तुम विश्वास किया , तो रोज़ाना मैं देख रहा हूँ, क्या देख रहे हो? देखो हम पेड़ के तले में बैठे हैं, वटवृक्ष, एक बीज गिरता है और उसके अंदर हज़ारों बीज और एक-एक बीज में एक-एक बड़े-बड़े वृक्ष है और एक वृक्ष में न जाने कितना वटफल है। तो यदि भगवान एक बीज के भीतर इतना भारी पेड़ को रख सकता है तो सुई के छिद्र से हाथी को ले आना क्या उसके लिए कोई मुश्किल है। तो नारदजी समझ गए की ये जो चमार है वो पूर्ण भगवान का विश्वास करता है। अचिन्त्य शक्ति, भगवान का विषय, यदि अचिन्त्य शक्ति हमलोग स्वीकार न करें तो फिर आगे हम लोग नहीं बढ़ सकते। हम समझते हैं की मान लिया भगवान हैं, कृष्णा, तो बाकि हमसे थोड़ा ज़्यादा होगा। हम एक टन बोझा उठाते हैं तो भगवान दो टन नहीं तो चार ट। जब बोला जाता है की भगवान सात वर्ष की उम्र में पहाड़ को उठा लिया। नहीं-नहीं ये संभव नहीं है। क्यों वो अपने किया इसीलिए भगवान को मानते हमारे जैसे शक्ति है ऐसे भगवान भी हो। "अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |" क्योंकि भगवान ऐसे हमारे हो करके हमलोग को कृपा करते है। भगवान ये जो मूर्ति, अर्च मूर्ति , तो भगवान ये जो हमारा आँख है, अभी तो हम भगवान को देख नहीं सकते, भगवान को छोड़ दीजिये, भगवान का जो अंश स्वरुप जीवात्मा हैं उसको हमलोग नहीं देख सकत। ये जब जीवात्माएं स्वरुप को छोड़ देता है, ये शरीर मुर्दा हो जाता है, मर जाता है, कोई काम का नहीं, एक कौड़ी के काम का नही। अब जब तक जीवात्मा इस शरीर में है, "देहिनो अस्मिन यथा देहे" तब तक ये शरीर का काम बहुत अच्छा है। तो वो जो जीवात्मा है हमलोग ये आंख से नहीं देख सकते। कैसे जीवात्मा छोड़ दिया, कैसे इसके भीतर है। इतना बड़ा डॉक्टर है एनालिसिस करके देखोजी ये जीवात्मा कहाँ है, नहीं देख सकते। क्योंकि ये आँख जो है, जड़ आंख से चेतन वस्तु का दर्शन नहीं हो सकता है। "अत: श्री-कृष्ण-नामादि न भवेदे ग्राह्यं इन्द्रियैः" परन्तु भगवान कृपा करके जैसे हमलोग दर्शन कर सकते हैं उसी प्रकार मूर्ति से मंदिर में भगवान आये। अगर कोई कहे ये पत्थर है, ये भगवान कहाँ है, नहीं भगवान को छोड़ करके कोई चीज़ है ही नहीं, पत्थर भी तो भगवान है, भगवान है कारण, पत्थर का कारण कौन है, पत्थर का कारण भगवान है। भगवान पहले ही बताया "भूमिर आपोऽनलो वायुः" तो पत्थर मट्टी है, मट्टी आया किधर से, आप तो मट्टी नहीं बना सकते हैं, तो उसका कारण कौन है। भगवान कहते हैं "भिन्ना प्रकृतिर अष्टधा। ये जो भूमि आठ प्रकार के भौतिक चीज़, स्थूल और सूक्ष्म, मट्टी, पानी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, मन, बुद्धी, अहंका। ये पांच चीज़ स्थूल है और ३ चीज़ सूक्ष्म है। जीवात्मा का दो शरीर होता है, एक स्थूल शरीर और दूसरा सूक्ष्म शरीर। ये स्थूल शरीर हमलोग देख सकते हैं, लेकिन सूक्ष्म शरीर हमलोग देख नहीं सकते। ये मन बुद्धी अहंकार हमलोग जानते हैं, ये आपका का भी मन है, हमारा भी मन है, आपका का भी बुद्धी है, हमर भी बुद्धी है, लेकिन देख नहीं सकते, बहुत सूक्ष्म है और उससे भी सूक्ष्म जो है वो आत्मा है। कैसा हमलोग देखेंगे। तो जब भगवान का थोड़ा सा अंश हमलोग नहीं देख सकते, तो भगवान जो पूर्ण हैं, चेतन "नित्यो नित्यानां चेतनश्च चेतनानां" । इसलिए हमलोग भगवान को कैसे देख सकेंगे यह आँख से। नहीं, यह संभव नहीं। भगवान इसलिए जो चीज़ हम देख सकते हैं उसी प्रकार हो करके हमको दर्शन देते हैं। ये अर्चा मूर्ति है। बाकि हमलोग मुर्ख हैं। कहते हैं देखो जी एक पत्थर लेकरके ये लोग पूजा करते हैं। कोई ऐसा फेकू हैं जो बोलता है 'पत्थर पूज कर हरी मिले मैं दूंदू पहाड़। नहीं ये जो बड़े-बड़े आचार्य लोग ये पत्थर पूजने के लिए नै, साक्षात् भगवान, बाकि आँख होना चाहिए, देखने का आँख होना चाहिए। "प्रेमाञ्जन-च्छुरिता-भक्ति-विलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति" प्रेम होना चाहिए, वो देख सकता है भगवान को। और वो देख सकता है की भगवान ही सबका कारण है। जैसे चमार बोलता है क्यों नहीं मानेंगे। जो पढ़े लिखे हैं, बड़े तत्त्व करने के लिए मजबूत हैं वो तो मन नहीं, ये संभव नहीं एक छिद्र से हाथी को इधर ले आना उधर ले आना क्योंकि उनका विषय चिंतनीय नहीं है। चिंता से वो समाधान ही नहीं कर सकता है की ये कैसे संभव है , इसलिए भागवत दर्शन करने के लिए पहले तो भगवान की अचिन्त्य शक्ति हैं पहले तो उसको मानना है, वो हमारा चिंतनीय वास्तु नहीं है। भगवान में अचिन्त्य शक्ति है। यदि भगवान में अचिन्त्य शक्ति नहीं है, तो वो भगवान कैसे है। इसलिए भगवान कहते हैं "त्रिभिर गुण-मयैर भवैर एभिः सर्वम् इदं जगत्। वो क्यों नहीं देख सकता है क्योंकि माया का तीन गुण है सत्त्व गुण ,तमो गुण, रजो गुण, उससे फंसे हुए हैं। इसलिए वो भगवान को समझ नहीं पाते। “मोहितम नाभि जानाति”, माया से मोहित हो गया है। उसका बैकग्राउंड में जैसे बड़े-बड़े सइंटिस होते हैं उनसे पुछा जाए वो बोलता है नेचर, नेचर क्या चीज़ है। नेचर एक शक्ति है ,किसकी शक्ति है ,उसको समझना चाहिए और उसका जवाब भगवद-गीता में है। ये नेचर जो है। नेचर इंडिपेंडेंट नहीं है, स्वाधीन नहीं है। भगवान स्वयं कहते हैं "मायाध्यक्षेण प्रकृतिः सुयते स-चराचरम"। प्रकृति जो है मयाध्यक्षेण ,हमारी अध्यक्षता से वो काम कर रही है। सब शास्त्र का एहि विचार है। ब्रह्मा संहिता में भी ये बताते हैं "सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधन-शक्ति एका छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा"। दुर्गा शक्ति जो है प्रकृति, वो श्र्स्टी, प्रलय, शिथि, कर सकती है, इतनी भारी शक्ति है, किन्तु "सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधन-शक्ति एका छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा"। छायेव, जैसे परछाय। जब व व्यक्ति हिलता-डुलता है तो उसका छाया भी हिलता-डुलता है। असल चीज़ वो व्यक्ति। इसी प्रकार उद्धरण हमलोग देख सकते हैं। एक बड़े आदमी का पत्नी बहुत खर्च कर रही है। उसको खर्च करने का पैसा कहाँ से मिला। उनके पति देते हैं तो वो खर्च करती है। ये साधारण विचार है। इसी प्रकार प्रकृति जो है विष्णु शक्ति, भगवान की शक्ति "परास्य शक्तिर विविधैव श्रुयते" उसकी शक्तियां इतनी हैं, मालूम ही नहीं हो सकता है कितनी शक्तिंयां हैं। एक दुर्गा शक्ति का पावर देख के ही हमलोग चमत्कार समझते हैं। और बहुत से शक्ति हैं। "परास्य शक्तिर विविधैव श्रुयते स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च। वो शक्ति इतना सूक्ष्म है। वो वटवृक्ष का बीज देखिये। अब किताब खोलिये ऐसे-ऐसे चीटियां निकल आते हैं, बहुत छोटी है,एक फुल-स्टॉप से भी छोटी, वो भी हिलता-डुलता है। उसका हाथ है, पैर है, हार्ट है, सब चीज़ उसमे है। सब चीज़ उसमे है तभी तो हिलता-डुलता है। बायोलॉजिकल ट्रुथ। ये सब चीज़ अगर नहीं हो तो उसको लिविंग नहीं हो सकता है। सब उसमे है, बाकि कहाँ है, किधर है। हमलोग एयरोप्लेन बनाये, बड़ा मशीन, बहुत बहादुर हैं। भगवान एयरोप्लेन बनाते हैं छोटी सी कीड़ा वो भी बहादुर कार्य है। अब उसमे कहाँ मशीन है, किस तरह से उड़ रहा है, बताइये। तो इसी प्रकार अगर हमलोग भगवान की अचिन्त्य शक्ति को स्वीकार नहीं करेंगे और भगवान को हम एहि समझेंगे की ये हमारे जैसे ही होगा। इसको कहा जाता है कूपा-मंडूक न्याय, कुआँ का मेढक। कुआ तीन हाथ पानी है। उधर एक मेढक बैठा है। उसका मित्र आके कहते हैं 'अजी भाईसाहब हम तो आज एक बहुत बड़ा जलाशय देख के आये हैं। कहाँ। वो अटलांटिक ओसियन। अच्छा, बहुत भारी है? कितन बड़ा है? अरे बहुत बड़ा।अच्छा इससे और थोड़ा बड़ा है, और थोड़ा बड़ा है, तीन हाथ उसका एक्सपीरियंस है। वो समझा चार हाथ, पांच हाथ, अच्छा चलो छे हाथ, चलो दस हाथ। चलो करते-करते। वो अटलांटिक का तुमको क्या मालूम। इसी प्रकार भगवान की अचिन्त्य शक्ति हमलोग चिंता ही नहीं कर सकते। इस बात को अगर हम स्वीकार नहीं करें तो हमलोग आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हमलोग अगर ऐसे ही समझ ले की हमारी जो शक्ति है उससे और थोड़ा ज्यादा होगा और क्या; तीन डबल होगा चार डबल होगा दस डबल होगा नहीं, अचिन्त्य, तुम्हारा चिंतन का वास्तु है ही नहीं। कितनी शक्ति है। तो ये वो नहीं समझते हैं इसलिए भगवान कहते हैं ये जो मूर्ख लोग होते हैं वो नहीं समझ सकते उसका आकार, निर्देश नहीं कर सकते, फिर आगे जा के वो ख़तम कर देते हैं मान लो सब निराकार, हो गया काम। जो आकार को कूप मंडूक ठीक नहीं कर सकते हैं, अटलांटिक ओसियन होता है, वो चिंता नहीं कर सकते। वो कहते हैं निराकार। इसलिए भगवान कहते हैं "मोहितम नाभि जानाति " ये जो सब मोहित हैं माया से वो ये भगवान की शक्ति क्या है समझ नहीं सकते। निराकार का अर्थ होता है जिसका आकार निर्णय नहीं होता। भगवान चाहे तो इतने बड़े "अणोर अणियान महतो महीयान" सबसे बड़ा आकाश को चिंता कर सकते हो, आकाश सबसे बड़ा, बाकि ऐसे करोड़ों आकाश उनके पेट के भीतर। इसलिए कहते हैं यशोदा मई कृष्णा के विषय मे। कृष्णा के छोटे-छोटे मित्रे आकर के शिकायत किया की माताजी कृष्णा ने आज मट्टी खाया। मट्टी खाया। ए कृष्णा तूने मट्टी खाया? नहीं माताजी नहीं खाया। ये ऐसा बोल रहे हैं। ये सब झूट बोल रहे हैं। बलराम भी बोल रहें हैं। नहीं, बलराम भी उसके साथ हो गए हैं। आज सबेरे झगड़ा हो गया इसलिए आपके पास शिकायत ले करके आये हैं। यशोदा बोली क्यों तुमलोग सब क्यों झूट बोलते हो? नहीं माताजी वो खाया हमलोग सब देखा। अच्छा तो तुम जरूर खाया। नहीं माताजी झूट बोल रहें हैं। अच्छा तो मुँह दिखाओ, मुँह खोलो, हम देखेंगे। जब मुँह खोलता हैं तो यशोद मई देखती हैं तो सारा अनंत कोटि ब्रह्माण्ड उसके मुँह के अंदर। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड, तो ये भगवान का विषय हैं। रोम-रोम में हैं। शास्त्र में कहते हैं

"यस्यैका-निश्वसिता-कालम् अथावलम्ब्या

जीवन्ति लोम-विलजा जगद्-अन्द-नाथः विष्णुर् महान स इहा यस्य कला-विशेषो गोविंदम आदि-पुरुषम तम अहम भजामि" ये जो निस्वास हमलोग देखते हैं। वो जो भगवन महाविष्णु कारन जल में लेटे हुए हैं, वो जब निश्वास फेकते हैं अनंत कोटि ब्रह्माण्ड निकलते हैं और एक-एक ब्रह्मण का मालिक हैं ब्रह्माजी। इससे क्या कहते हैं "यस्यैका-निश्वसिता-कालम् अथावलम्ब्या एक जीवन्ति लोम-विलजा जगद्-अन्द-नाथः। एक ब्रह्मा नहीं हैं अनाथ कोटि ब्रह्माण्ड हैं, अनंत कोटि ब्रह्मा हैं, अनंत कोटि शिव है, अनंत कोटि सूर्य हैं, अनंत कोटि चंद्र हैं, सब अनंत कोटि। ये सब खबर तो मालूम नहीं है। भई शास्त्र से मालूम होने चाहिए। जीवन्ति लोम-विलजा जगद्-अन्द-नाथः विष्णुर् महान, ये महाविष्णु जिससे ये भौतिक जगत शुरू हो गया। महाविष्णु से गर्भोदकशायी विष्णु , फिर गर्भोदकशायी विष्णु से क्षीरोदक्षायी विष्णु,, ये सब विष्णु पालन करने वाले हैं। तो ये सब खबर तो हमको मालूम नहीं हैं। हमारा आँख ढका हुआ हैं। हमलोग समझते हैं की भगवान हमारे जैसे ही कुछ होगा। ज़्यादा हमसे कितना होगा वो कूप-मंडूक न्याय। कूप-मंडूक जो कभी समुन्दर देखा ही नहीं वो कैसे समजेगा की समुन्दर कितना बड़ा हैं। इसलिए भगवान को देखने के लिए आँख बनाना चाहिए। जैसे चैतन्य महाप्रभु जग्गनाथ पूरी गए और जग्गनाथजी का दर्शन किये और मूर्छित होकर गिर पड़े। और हमलोग कहेंगे की देखो ये लकड़ी का मूर्ति हैं और लकड़ी का मूर्ति देख करके ये पागल गिर गया। तो आँख होना चाहिए, वो आँख नहीं हैं। आँख नहीं होने का कारण "मोहितम नाभि जानाति'" मोहित हो गया। जैसे सूर्य, सूर्य बहुत बड़ा ह। हमलोग सब जानते हैं। ये जो धरती है इससे चौदह लाख गुण बड़ा है और हमलोग कहते है देखोजी आज सूर्य बादल से ढक गया। अरे सूर्य कभी बादल ढक सकता है।बादल कितना बड़ा होगा, ज्यादा से ज्यादा १०० मील होगा, २०० मील होग। अरे सूर्य तो है तुम्हारे इस धरती से चौदह लाख गुण बड़ा, क्या बदल इसको ढकेगा ? वो समझता नहीं की हमारा आँख को ढक दिय। वो सब बोलता है की सूर्य को ढक दिया बदल। इसी प्रकार वो माया जो है भगवान को ढक दिया। माया तो भगवान के हुक्म से काम करती है भगवान को ढक कैसे सकती है। ये सब विचार है। "अपश्यत् पुरुषम् पूर्णम् मायां च तद-अपाश्रयम्"। व्यासदेव जब फ़ेंक दिया भागवत लिखने का परम पुरु परमष को देखा और माया को भी देखा तो "मायां च तद-अपाश्रयम्"। माया भगवान को ढक नहीं सकती। माया हमारा आँख को ढक सकता है जिससे की हमारा भगवान का डएशन न हो सके। इसीलिए कहता हैं "मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परम अव्ययम्" परम। भगवान का मैं छाया नहीं, ये सब जानते हैं। इसलिए भगवान को समझने के लिए भगवद भक्त। "वेदेषु दुर्लभं अदुर्लभं आत्म-भक्तौ"। भगवान प्रकाशक। "सेवन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयं एव " जैसे सूर्य प्रकाश होता है। आप रात में सूर्य को नहीं देख सकते। अगर आपके पास टॉर्चलाइट है की चलो छत से हम तुमको सूर्य दिखाएंगे , ये संभव नहीं है। टॉर्चलाइट नहीं हज़ारों पोवेर्फुल --- नहीं देख सकते हैं। जब सूर्य उदय होगा तो कृपा से आप देख सकते हैं। इसी प्रकार भगवद उदय होने से ,भगवान की कृपा से जब आपके सामने उदय होगा तभी आप देख सकेंगे। अपनी भुद्धि से ,वो कूप-मंडूक के जैसी विचार करने से, विचार ही करते रहेंगे, भगवद दर्शन कभी नहीं होगा। इसलिए कहते हैं "चिरम विचिन्वन" "न चान्य एको 'पि चिरम विचिन्वन " अथापि ते देवा पदाम्बुज-द्वय- प्रसाद-लेषानुगृहित एव हि जानाति तत्वं भगवान-महिम्नो न चान्य एको 'पि चिरम विचिन्वन ये भगवान आपकी कृपा की लेश मात्र इसलिए कहते हैं "चिरम विचिन्वन" "न चान्य एको 'पि चिरम विचिन्वन " अथापि ते देवा पदाम्बुज-द्वय- प्रसाद-लेषानुगृहित एव हि जानाति तत्वं भगवान-महिम्नो न चान्य एको 'पि चिरम विचिन्वन ये भगवान आपकी कृपा की लेश मात्र जिसका ऊपर है, वो तो आपका दर्शन कर लेगा। “अथापि ते देवा पदाम्बुज-द्वय-प्रसाद-“ आपका चरण का प्रसाद, थोड़ी सी कृपा गिरा। “अथापि ते देवा पदाम्बुज-द्वय-प्रसाद-लेषानुगृहित एव हि जानाति तत्वं”, जिसके ऊपर थोड़ा सा भागवत प्रसाद हुआ, वो भागवत तत्त्व समझा, नहीं तो भागवत तत्त्व समझना कोई साधारण बात नहीं है। भगवान खुद भी जानते हैं। "मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये यातताम अपि सिद्धानां कश्चिन माम् वेत्ति तत्वतः”। बड़े-बड़े सिद्ध लोग वो भी भगवान को समझ नहीं पाए। बाकि भगवान की कृपा किसी के ऊपर लेश मात्र होए, तो वो भगवान को समझता है। अथापि ते देवा पदाम्बुज-द्वय- प्रसाद-लेषानुगृहित एव हि जानाति तत्वं भगवान-महिम्नो न चान्य एको 'पि चिरम विचिन्वन और दुसरे जो है अनंत कोटि चिंता ही करते रहे, वो भगवान को नहीं समझते। "नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः" ये भगवान स्वयं कहते हैं की हम सबका सामने दर्शन नहीं देते है। योग माया वो आच्छारन कर देती है। तो इसलिए भगवान खुद कहते हैं "मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्" "परं भावं अजानन्तो" और भी ऐसी बातें हैं। तो भगवान बता रहे हैं यदि हमको जानने को चाहते हो तो उसका उपाय भी बता दिया है "भक्त्या माम अभिजानाति यावां यश चास्मि तत्वतः" केवल भक्ति से, ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं। साधारण समझ लीजिये हमारे देश में बहुत बड़े-बड़े धनि हैं, अगर समझ लीजिये आप बिरलाजी से मिल गया और बिरलाजी बताइये आपके पास कितना रूपया है, वो बतायेग थोड़े ही। तुम सोचते ही रहो होगा दस करोड़, नहीं बीस करोड़, बोलेगा नहीं-नहीं इतना नहीं। ये सब सोचते ही रहो और यदि बिरलाजी कहे देखोजी हमारे पास इतना है तो फिर आपको समझ में आ जायेगा। आपको सोचने का क्या ज़रुरत है। तो ये सोचने का काम छोड़ दो। यदि आप भगवान को समझना चाहते हैं तो "अनोर अनियाँ महतो महियाँ" वो शूद्र से शूद्र है। क्यूंकि आप नहीं सोच सकेंगे की कैसे जीवात्मा है वो भी आप नहीं देख सकते हैं या भगवान बहुत बड़ा है वो भी आप नहीं देख सकते। क्यों नहीं है संभव। "अनोर अनियाँ" यदि आप बोलेंगे भगवान भगवान है, लेकिन जीवात्मा तो है हमारे शरीर में, सबके शरीर में, चींटी का भी शरीर में, दिखाई दिया, देखिये कहाँ है। नहीं "अण्डान्तर-स्थ-परमाणु-चयान्तर-स्थम्:" परमाणु को हमलोग देख नहीं सकते लेकिन उसके भीतर भी है। इसलिए भगवान को देखने के लिए, भगवान को समझने के लिए, वो तो भागवत प्रेम बिना नहीं हो सकता, भक्ति। इसलिए ये जो कृष्णा कोनशएसनेस मूवमेंट है उसको सिखाया जाये वो जो भागवत दर्शन करने के लिए क्या पद्दति, उसको अनुभव। वो पद्दति यदि आप उसको अनुसरण करेंगे तो आहिस्ते-आहिस्ते आपको। कैसे मालूम होगा जैसे आप भूके हैं, आपको खाने की चीज़ दिया जाता है, अच्छा चीज़, स्वादिष्ट और पुष्टिकर, तो आप उसके जितना खाएंगे आपके शरीर में बल भी अनुभव होगा और खाने काभी बड़ा स्वादिष्ट मालूम होगा। इसी प्रकार ये भागवत संपर्क भगवान को देखने के लिए, समझने के लिए, जो शास्त्र में पुष्टि करके आपको बताया गया है भक्ति, उसको भक्ति को ग्रहण करके जैसे-जैसे आप आगे बढ़ेंगे भगवान को ----। ऐसे नहीं नाचते-नाचते बंसी लेकर हमारा सामने खड़ा हो जाइये। भगवान तुम्हारे बाप का नौकर है?खड़ा हो जायेगा ? आगे बढ़ो , शरण करो "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" पहले तो शरणागत हो। क्यों , बड़ा घमंड है, भगवान क्या है, हम भगवान हैं, सब भगवान है। तो इसको तो आगे छोड़ो, ये जो बदमाशी है राक्षसी बुद्धि, इसको आगे छोड़ो, तब भगवान का बात बोलो। जब तक राक्षस का बुद्धि रखोगे तो राक्षस क्या भगवान को समझ सकता है? हिरण्यकशिपु राक्षस, सबसे बड़ा पापी, आखिर में उसे भी समझने को पड़ा की भगवान भी ऐसा एक मूर्ति होता है। और उसके सामने आये नरसिंघदेव। वो बड़ा चालाक था हिंरण्यकषिपु। ब्रह्माजी से वर लिया था, बहुत ---- सारा दुनिया को हिला दिया था। तो ब्रह्माजी पहुँच गया 'क्यों जी तुम क्या चाहते हो? इतना भरी तपस्या कर रहे हो, सब आदमी को तकलीफ दे रहे हो। नहीं हम अमर होने को चाहते है। हम नहीं मरेंगे आप ऐसा वर दीजिये। ब्रह्माजी बोलै हमसे वर, हम भी तो मरने वाला है। इधर कौन है जो मरेगा नही। ये तो हो नहीं सकेग। तो हमसे बाद लोगे क्यूंकि हम तो खुद ही मरने वाला है। अच्छा, बहुत चलाक है, ये असुर लोग बहुत चलाक होते है। चतुर, तो देखा कोई उल्टा-सीधा करके अगर अमर हो सकें तो उसको उपाय किया जाये। देखोजी, हमको कोई मनुष्य नहीं मारेगा, कोई देवता नहीं मारेंगे, कोई पशु नहीं मारेगा, और हम दिन में नहीं मरेंगे और रात में भी नहीं मरेगे, और आकाश में भी नहीं मरेंगे और ज़मीं में भी नहीं मरेंगे, पानी में भी नहीं मरेंगे। इसी प्रकार उनकी बुद्धि जितनी थी सब ख़तम कर दिय। ब्रह्मजी बोले सब ठीक है, तुम इससे नहीं मरोग। वो ठीक कर लिया, अब तो हम मरने वाले नहीं हैं। बस, अमर हो गया। बाकि वो जो भगवान की बुद्धि होती है न वो सब समय दो ऊँगली बड़ी। तो उसको मारा इस तरह से दिन भी नहीं, रात नहीं, और पशु भी है नहीं, मनुष्य भी है नहीं, इसी प्रकार भगवान एक मूर्ति धर कर आय। ब्रह्माजी का बात रख लिय। इसलिए नरसिंघ आधा सिंह मूर्ति आधा मनुष्य मूर्ति और उसको ज़मीन में भी नहीं मारा, जल में भी नहीं मारा, आकाश में भी नहीं, अपने गोद में रख के मार। ये आपलोग सब जानते हैं प्रह्लाद चरित्र में है। तो इसी प्रकार जो राक्षस होते हैं उनकी बुद्धि बहुत प्रबल होती है। बाकि वो सब बुद्धि से भगवान के पास काम नहीं चलता है। भगवान की बुद्धि और है। यह सब समय समझना चाहिए। इसलिए कहते हैं "मोहितम नाभि जानाति"। ये जो मोहित है; ये राक्षस लोग सब मोहित हैं। "मोहितम नाभि जानाति। इसलिए भगवान को जान नहीं सकता है। भगवान को जानने के लिए एकमात्र भक्ति है और भक्ति तभी शुरू होगी जब "सर्व धर्मान परित्यज्य मां एकम शरणम व्रज"। जब भगवान के चरण में पूर्ण शरणागत। तो वो सबको हो नहीं सकता। इसलिए भगवान कहते हैं :"बहुनाम जन्मनाम अन्ते ज्ञानवान मां प्रपद्यते वासुदेवं सर्वं इति स महात्मा सुदुर्लभः"। अनेक जनम तपस्या करके और साधना करके जब वास्तविक वो ज्ञानवान होता है तो वो भगवान के चरण में सिर झुकता है की "वासुदेवं सर्वं इति" की भगवान ही सब कुछ है। भगवान की शक्ति का विकास है जो परस्य ब्रह्मणः शक्ति ये उसको समझना है और जब तक ये बात नहीं होती है तो ये श्लोक भगवान बताते हैं "त्रिभिर गुण-मयैर भावैर एभिः सर्वम् इदं जगत् मोहितं नाभिजानाति" ये मोहित है ये क्या समझेगा। Thank you very much